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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारतवर्ष में अंग्रेजोका राज्य होनेपर फिर विद्याका प्रचार हुआ, और इतिहासकी अपूर्णता मिटाने के लिये लेख आदिकी कद्र होने लगी. सन् १७८४ ई० में सर विलियम जोन्सके यत्नसे एशिया खण्डके इतिहास, शिल्प, साहित्य आदिका शोध करनेके लिये एशियाटिक सोसाइटी नामका समाज कलकत्ता नगरमें कायम हुआ, और उक्त समाजके जर्नलों (सामाजिक पुस्तकों) में अन्य अन्य विषयोंके साथ प्राचीन लेख,दानपत्र और सिके भी समय समयपर प्रसिद्ध होने लगे. कितनेएक वर्षों के बाद लण्डन नगरमें 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' कायम हुई,और उसकी शाखा बम्बई और सीलोनमें भी स्थापित हुई. ऐसेही समय समयपर जर्मन, फ्रान्स,इटली आदि युरोपके अन्य देशों तथा अमेरिकामें भी एशिया खण्ड सम्बन्धी भिन्न भिन्न विषयोंके शोधके लिये समाज कायम हुए, और उनके सामाजिक पुस्तकों में समय समयपर यहांके अनेक लेख, दानपत्र और सिके प्रकट होने लगे. भारतवर्षकी गवर्मेटने भी प्राचीन शोधके निमित्त प्रत्येक अहातेमें 'आकिया लॉजिकल सर्वे' नामके महकमे कायम किये. जिनकी रिपोर्टोसे भी अनेक प्राचीन लेख, दानपत और सिके प्रसिद्धि में आये. इसी उद्देशसे डॉक्टर बर्जेसने 'इण्डियन एण्टिक्केरी' नामका एक मासिक पत्र ई० सन् १८७२ से निकालना प्रारम्भ किया, जिसमें अबतक बहुतसे लेख आदि छपते ही जाते हैं. ई० सन् १८७९ में गवर्मेंट के लिये जेनरल कनिंगहामने अशोकके समयके समस्त लेखोंका एक उत्तम पुस्तक प्रसिद्ध किया, और ई० सन् १८८८ में कीट साहिबने गुप्त और उनके समकालीन राजाओंके लेखोंका एक अत्युत्तम पुस्तक तय्यार किया. .ई. सन् १८८८ से 'एपिग्राफिया इण्डिका' नामका एक लैमासिक पुस्तक भी केवल प्राचीन लेख और दानपत्रों को प्रसिद्ध करनेके निमित्त गवर्मेंटकी ओरसे छपने लगा. इनके अतिरिक्त अनेक दूसरे पुस्तकोंमें भी कितने ही लेख, दानपत्र और सिक्के छपे हैं, जिनसे मौर्य (मोरी), तुरुष्क, क्षत्रप, गुप्त, हूण, लिच्छवि, मौखरी, वैश, गुहिल, परिव्राजक, यौद्धेय, प्रतिहार ( पडिहार ), राष्ट्रकूट (राठौड़ ), परमार, चालुक्य (सोलंखी), व्याघ्र. पल्ली ( बाघेला ), चौहान, कच्छपघात ( कछावा), तोमर (तंवर ), कलचुरि, चंद्रात्रेय (चन्देला), यादव, पाल, सेन, गुर्जर (गूजर), मेहर, शातकर्णी ( आंध्रभृत्य), अभीर, सुंग, पल्लव, कदंब, शिलारा, सेंद्रक, काकत्य, नागवंशी, शूरसेनवंशी, निकुम्भवंशी, गंगावंशी, पाणवंशी, सिंदवंशी आदि अनेक राजवंशियोंका बहुत कुछ इतिहास प्रकट हुआ है, परन्तु हमारे बहुतसे स्वदेशी बांधव, जो अंग्रेजी नहीं जानते, वे उक्त For Private And Personal Use Only
SR No.020558
Book TitlePrachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Harishchandra Ojha
PublisherGaurishankar Harishchandra Ojha
Publication Year1895
Total Pages199
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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