SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org धारावर्ष ध्रुवसेन के भोर राज्य संग्रहालय ताम्रपत्र क्रोध से उखाड़े गये खड्ग 20. से युद्ध में विस्तीर्ण कान्तिसमूह से शोभित प्रतापी शत्रु के स्पष्ट गज समूह को क्षुब्ध करने में चतुर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 21. उसे कहीं भी देखकर तत्काल गर्व से फूले भय चकित वीरता छोड़ शत्रु वर्ग को नष्ट कर जिसकी भुजाओं का बल सार्थक हुआ। 16 जिसने 211 22. चारों समुद्रों की मेखला से अलंकृत पृथ्वी की रक्षा की। वेदों से ब्राह्मण, देव तथा गुरुजनों की अपार धृत से पूजा तथा आदर किया। जो दानी, मानी, गुणीजन में अग्रणी 23. लक्ष्मीपति था वह अपने विपुल तप से स्वर्गफल भोगने के लिये स्वर्ग सिधार गया। 17 29. जो श्वेत छत्र से निवारित सूर्य के किरण समूह की उष्णता से क्रीडासहित सैन्याग्र भाग की धूलि से श्वेत सिर से सदा 'वल्लभ' नाम से जाना जाता था, वह श्री गोविन्दराज, जगत् के अहितकारी शत्रुओं की स्त्रियों के वैधव्य हेतु बन गया, वह उसका इकलौता पुत्र था जो क्षणभर में रण में शत्रुओं को विनष्ट करने में मदमस्त हाथी था। 18 उसका अनुज, राजा हुआ जिसका नाम श्री ध्रुवराज था। जो श्रेष्ठ जनों के प्रताप को भी पराभूत करने वाला, सारे नृप समूह से अलंकृत तथा क्रमशः जिसका शरीर बालसूर्य सा (तेजस्वी ) हो गया। 19 श्रेष्ठ 27. नृपों में मूर्धन्य, राष्ट्रकूटों में श्रेष्ठ, उसके उत्पन्न होने पर सारे जगते को नित्य ही अपने श्रेष्ठ स्वामी से गहन संतोष था । सच ही, 28. धर्मपरायण, गुणामृतनिधि तथा सत्य के व्रत पर स्थित उसके शासनकाल में भूमि समुद्रपर्यन्त । (सुशासित तथा संतुष्ट) रही। 20 गंगा तथा वेंगी सहित काञ्ची के स्वामी For Private And Personal Use Only तथा मालव के स्वामी आदि उन विरोधी राज्यों के नृपों को भी जिसने दण्डित किया। मणियों के आभरण का स्वर्ण समूह जिसके निकट सतत
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy