SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 200 प्राचीन भारतीय अभिलेख 9. भगवान् बुद्ध का यह अद्भुत प्रासाद निर्मित किया जो अपनी धवलता से मानो कैलास को पराजित करना चाहता है। 6 और भी चन्द्रकान्त को विलग करता हुआ, हिमालय 10. के शिखर की श्रेणियों को निरस्त करता हुआ, शुभ्र आकाश गंगा को मलिन करता हुआ, विद्वज्जलधि को मौन करता हुआ, मानो यहां शून्य भुवन में विजय के लिये भ्रमण करना व्यर्थ है, यह सोचकर सारी पृथ्वी पर भ्रमण कर विपुल समुन्नत यश स्तम्भ से स्थित है। 7 यहां नैवेद्य, घी, दही, भास्वर दीपक, चारों जाति के हाथी (अथवा चारों जाति की मिट्टी) से युक्त अमृत के समान शीतल जल आदि रूपमें शुद्धात्मा भगवान् बुद्ध के लिये साध्वी अक्षयनीवि (स्थायी धन); उपर्युक्त वंश के यश से पूर्ण मालाद ने स्वयं भक्ति से अर्पित की। 8 उपदेश से विकसित, शील, अध्ययन आदि से शुभ्र मेधावान् । 13. भिक्षुसंघ को उसने पुनः अपार घी, दही, आदि व्यञ्जनों से युक्त अन्न एवं चार भिक्षुओं को चतुर्जातक' से सुगन्धित विमल पेय नित्य प्रदान किये। 9 उसी अद्भुत कर्म वर्ग ने आर्य सङ्घान्तिकों से खरीद एवं एक चीवरिका छोड़ बाकी सबको सम्यक् रूप से प्रदान कर, काल को प्रेरित करने के लिये 15. अपने क्षेत्र को छोड़ सुख से नर्दरिका तक गुहा बुद्ध के लिये प्रदान की। 10 विमल गुण से सम्पन्न भिक्षु पूर्णेन्द्रसेन के कथन से प्रेरित होकर जिसने यह दान दिया। पृथ्वी पर फैले विमल यश वाली उस शरचचन्द्र जैसे मुखवाली के भाई ने इसे बनाया। 11 उस धर्म-धाम के माता-पिता भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, मित्र की आयु एवं स्वास्थ्य के लिये अत्यंत सरस होकर उसने यह दान दिया। त्वगेला पत्रकैस्तुल्यैस्त्रिसुगन्धि त्रिजातकम्। नागकेसरसंयुक्तं चतुजातिकमुच्यते।। 14. For Private And Personal Use Only
SR No.020555
Book TitlePrachin Bharatiya Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagwatilal Rajpurohit
PublisherShivalik Prakashan
Publication Year2007
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy