SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८. दया धर्म का मूल है यदि इस संसार में दयाधर्म का सार्वभोम राज्य प्रवर्तित हो जाय तो सचमुच यह दुनिया स्वर्ग से भी अधिक सुंदर व उत्तम बन जाय! --श्रीमद बुद्धिसागरमूरिजी सुरत दिनांक : २-२-१९१२ ब्रह्माण्ड के सभी जीवों को अपनी आत्मा के सदृश मान, सदैव उनकी रक्षा करनी चाहिए। कारण दया समान इस दुनिया में कोई धर्म नहीं है। निजात्मा के प्रति जैसा स्नेह, प्रेम व ममता प्रकट होती है, उसी प्रमाण में वैसा प्रेम, स्नेह व ममता संसार के अन्य जीवों के प्रति प्रकटित कर सभी की समान भाव से प्राणरक्षा करनी चाहिा सर्व प्राणियों पर प्रेम-भावना की अमृत-वृष्टि करने हेतु प्रतिदिन अमुक समय निश्चित करना चाहिए। कोई व्यक्ति हमारा प्रिय पात्र...अनन्य प्रेमी हो, उसी जैसा स्नेह प्रेम भाव सर्व जीवों के प्रति प्रदर्शिति करने हेतु प्रायः अमुक विशिष्ट पात्र...प्रेममूर्ति सद्दश सर्व जीवों को मान लेना चाहिए और पशु-पक्षी, दीनदुःखी, आबालवृद्ध व निराधार असह्य अपंग लोगों के प्राणों की रक्षा करने हेतु हमारे पास जो-जो शक्तियाँ हों, उनका खुले हाथ सदुपयोग करना चाहिए। प्राणी मात्र के संरक्षणार्थ जिन-जिन शक्तियों का प्रयोग किया जाता हैं, उनका विकास हुए बिना नहीं रहता। यदि इस संसार में दया धर्म का सार्वभौम राज्य प्रवर्तित हो जाय तो सचमुच यह दुनिया स्वर्ग से भी अधिक सुंदर व उत्तम बन जाय। प्रभु-मिलन का सिंहद्वार दया है। आत्मा को परमात्मा में परिणत करनेवाली शक्ति दया है। एकेंद्रिय जीवों पर दया रूपी शीतल छाया करने वाले नरपुंगव साधुमहात्माओं के मन-मस्तिष्क में मन, वचन, काया से किसीका भी अशुभ करने की लेशमात्र भी भावना भला कैसे संभव है ? दया का अमृत-पान कर अपनी आत्मा For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy