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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अज्ञानी सत् एवं असत् अनंत धर्म से युक्त पदार्थ को पहचानने में असमर्थ होता है। वैसे ही संसार के आशय...हेतुओं को सम्यक् प्रकार से परख (पहचान) नहीं सकता । इसी तरह वह मुक्ति के आशय... हेतुओं को सम्यक तथा पहचानने में असमर्थ होता है। एक आत्मा में अनंतानंत अस्तिधर्म निहित हैं और अनंत नास्ति धर्म भी हैं। फलस्वरूप आत्मा स्व एवं पर पर्यायों के माध्यम से युक्त सर्व जगतमय है। एक सम्यकदृष्टि जीव सब कुछ जान सकता है, जबकि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव उसी की तरह जान नहीं सकता। अतः जो एक जानता है वह सर्व जानता है और जो सर्व को जानता है, वह एक को जानता है। । वस्तुतः सम्यकदृष्टि की श्रद्धा में यह भाव निहित है कि, 'सर्व वस्तुएँ सर्वमय हैं। ' परिणामतः सम्यकदृष्टि प्राप्त करनेवाले के लिए ऐसे संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय को भी ज्ञान स्वरूप ही समझना चाहिए। ____एक परमाणु में या एक आत्मा में सर्व लोकालोक वस्तु का समावेश होता है, श्री वीतराग देव के वचनों में सम्यग दृष्टि ऐसी अखण्ड श्रद्धा रखता है। श्री वीतराग प्रभु का कथन सत्य है, ऐसा विश्वास-भाव सम्यग दृष्टि के हृदय में होने से खातेपीते, उटते बैटते आदि सर्वस्थानों में उसे ज्ञान होता है। उसके हृदय में प्रभु-वाणी के प्रति की श्रद्धा स्थिर होने की वजह से यदि वह पागल बन जाय तो भी ज्ञानी माना जाता है। अनंत धर्मात्मिक वस्तु के संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय एक देश रूप होने से उसकी गणना भी ज्ञान रूप की जाती है। किसी वस्तु के अनंत धर्म से केवलज्ञानी भलीभाँति पर्गिचत होते हैं। तथापि मतिज्ञानी वस्तु के अनंत धर्म को अच्छी तरह जानते हुए भी सर्वज्ञ वचन के प्रति रही अटूट श्रद्धा से अनंत धर्म में श्रद्धासिक्त होने के फलस्वरूप ज्ञानी माना जाता है। लेकिन मिथ्यादृष्टि ज्ञानी कदापि ज्ञानी नहीं माना जाता। १०५ For Private and Personal Use Only
SR No.020549
Book TitlePath Ke Fool
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhisagarsuri, Ranjan Parmar
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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