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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिखावट को तरह-तरह से सुन्दर बनाने से लिपि के विकास में अन्य कारणों के साथ एक कारण उसे सुन्दर बनाने के प्रयत्न से भी सम्बन्धित है। किन्तु लिपि-लेखन अपने आप में एक कला का रूप ले लेता है। फारस में इस कला का विशेष विकास हुआ है। वहां से भारत में भी इसका प्रभाव पाया और फारसी लिपि में तो इस कला का चरमोत्कर्ष हुआ। भारत में अक्षरों के पालंकारिक रूप में लिखने का चलन कम नहीं रहा । हमने कितने ही अक्षरों के आलंकारिक रूप, आगे पुस्तक में दिये हैं। लेखन/लिखावट में सुन्दरता या कलात्मकता के समावेश से ग्रन्थ का मूल्य बढ़ जाता है। लिपि के कलात्मक हो जाने पर समस्त ग्रन्थ ही कलाकृति का रूप ले लेता है । 'एनसाइक्लोपीडिया आव रिलीजन एण्ड ऐथिक्स' का यह उद्धरण हमारे कथन की पुष्टि करता है : "Not only so, but Skilled Scribes have devoted infinite time to Copying in luxurious Style the Compositions of famous persian poets and their manuscripts are in themselves works of art." अनन्त समय लगाकर धैर्य और लेखन कौशल से लिपि में सौन्दर्य निरूपित करके समस्त कृति / ग्रन्थ को ही एक कलाकृति बना देते हैं । लिपि में विविध प्रकार की कलात्मकता और आलंकारिकता लाकर ग्रन्थ की सुन्दरता के साथ मूल्य में भी वृद्धि की जाती है। सोने-चांदी की स्याही से भी ग्रन्थ का सुन्दरता में चार-चाँद लग जाते हैं। इन कलात्मकता लाने वाले लिप्यासन, लिपि और स्याही-आदि जैसे उपकरणों के बाद ग्रन्थ के मूल्यवर्द्धन में सर्वाधिक महत्त्व चित्रकला के योगदान का होता है। ग्रन्थों में चित्रांकन का एक प्रकार तो केवल सजावट का होता है । विविध ज्यामितिक प्राकृतियाँ, विविध प्रकार की लता-पताएँ, विविध प्रकार के फल-फूल और पशु-पक्षी, आदि से पुस्तक को लिपिकार और चित्रकार सजाते हैं। ग्रन्थ चित्रांकन का दूसरा प्रकार होता है । वस्तु को, विशेषतः कथा-वस्तु को हृदयंगम कराने के लिए रेखाओं से बनाये हुए चित्र या रेखा-चित्र । ___ यह रेखा-चित्र आगे अधिकाधिक कलात्मक होते जाते हैं। इसकी अति हमें वहाँ मिलती है जहाँ ग्रन्थ चित्राधार बन जाता है और उसका काव्य मात्र आधार बनकर रह जाता है। उत्कृष्ट कलाकार की उत्कृष्ट कलाकृति बन जाता है, यह ग्रन्थ और कवि पीछे छूट जाता है। ऐसी कृतियों का मूल्य क्या हो सकता है । जयपुर के महाराजा के निजी पोथीखाने में एक 'गीतगोविन्द' की सचित्र प्रति थी। बताया जाता है कि इसके पृष्ठ 10 इंच लम्बे और 8 इंच चौड़े थे। कुल 210 चित्र-युक्त पृष्ठ थे। यह भी बताया जाता है कि एक अमरीकी महिला इसे 6 करोड़ रुपये में खरीदने को तैयार थी। इसके प्रत्येक पृष्ठ पर चित्र थे । ये चित्र विविध रंगों में अत्यन्त कलात्मक थे । इन्हीं के कारण 'गीत गोविन्द' की इस प्रति का मूल्य इतना बढ़ गया था। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पांडुलिपि प्रथमतः कलाकृति होती है। कलात्मक काव्य के साथ सुन्दर लिप्यासन, कलात्मक लिपि-लेखन, कलात्मक पृष्ठ-सज्जा और कलात्मक चित्र-विधान से इनके अपने मूल्य के माथ पांडुलिपि का भी मूल्य घटताबढ़ता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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