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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-ग्रन्थ-रचना-प्रक्रिया / 45 दशरथ-पुत्र, उपाध्याय, ध्यान, कथा, अभिनय, रीति, गोचरगा, माल्य, संज्ञा, असुर, भेद, योजनक्रोश, लोकपाल । पांच- स्वर, बाण, पाण्डव, इन्द्रिय, करांगुलि, शम्भुमुख, महायज्ञ, विषय, व्याकरणांग, व्रत-वह्नि, पार्श्व, फरिण-फण, परमेष्ठि, महाकाव्य, स्थानक, तनु-वात, मृगशिर, पंचकुल, महाभूत, प्रणाम, पंचोत्तर, विमान, महाव्रत, मरुत्, शस्त्र, श्रम, तारा । छ:- रस, राग, ब्रज-कोण, त्रिशिरा के नेत्र, गुण, तर्क, दर्शन, गुहमुख । मात- विवाह, पाताल, शक्रवाह-मुख, दुर्गति, समुद्र, भय, सप्तपर्ण-पर्ण । पाठ- दिशा, देश, कुम्भिपाल, कुल, पर्वत, शम्भू-मूर्ति, वसु, योगांग, व्याकरण, ब्रह्म, श्रुति अहिकुल । नौ. सुधा-कुण्ड, जैन पद्म, रस, व्याघ्री-स्तन, गुप्ति, अधिग्रह। दश- रावण-मुख, अंगुली, यति-धर्म, शम्भु, कर्ण, दिशाएँ, अंगद्वार, अवस्था-दश । ग्यारह- रुद्र, अस्त्र, नेत्र, जिनमतोक्त अंग, उपांग, ध्रुव, जिनोपासक, प्रतिमा । वारह- गुह के नेत्र, राशियाँ, माम, संक्रान्तियाँ, आदित्य, चक्र, राजा, चक्रि, सभासद् । तेरह--- प्रथम जिन, विश्वेदेव । चौदह- विद्या-स्थान, स्वर, भुवन, रत्न, पुरुष, स्वप्न, जीवाजीवोपकरण, गुण, मार्ग, रज्जु, सूत्र, कुल, कर, पिण्ड, प्रकृति, स्रोतस्विनी । पन्द्रह- परम धार्मिक तिथियाँ, चन्द्रकलाएँ । सोलह- शशिकला, विद्या देवियाँ । सत्रह- संयम अट्ठारह-विद्याएँ, पुराण, द्वीप, स्मृतियाँ । उन्नीस-ज्ञाताध्ययन बीस- करशाखा, सकल-जन-नख और अंगुलियाँ, रावण के नेत्र और भुजाएँ। शत- कमल दल, रावणाँगुलि, शतमुख, जलधि-योजन, शतपत्र-पत्र, आदिम जिन-सुत, वृतराष्ट्र के पुत्र, जयमाला, मरिण हार, स्रज, कीचक । सहस्र- अहिपति मुख, गंगामुख, पंकज-दल, रविकर, इन्द्रनेत्र, विश्वामित्राश्रम वर्ष, अर्जुन-भुज, सामवेद की शाखाएँ, पुण्य-नर-दृष्टि-चन्द्र ।1। यहाँ तक हमने सामान्य परम्पराओं का उल्लेख दिया है। विशेष में ऐसी परम्पराएँ आती हैं, जिनके साथ विशिष्ट भाव और धारणाएँ संयुक्त रहती हैं, इनमें कुछ प्रानुष्ठानिक भाव, टोना या धार्मिक सन्दर्भ रहता है। साथ ही ग्रन्थेतर कोई अन्य अभिप्राय भी संलग्न रहता है । इस अर्थ में हमने 10 बातें ली हैं : ___ (1) मंगल-प्रतीक : मंगल-प्रतीय या मंगलाचरण-शिलालेख, लेख या ग्रन्थ लिखने से पूर्व मंगल-चिह्न या प्रतीक जैसे स्वस्तिक卐या शब्द बद्ध मंगल आदि अंकित करने की प्रथा प्रथम शताब्दी ई०पू० के अन्तिम चरण मे और ई० प्रथम के प्रारम्भ से मिलने लगती है। इससे पूर्व के लेख बिना मंगल-चिह्न, प्रतीक या शब्द के सीधे प्रारम्भ कर दिये जाते थे । मंगलारंभ के लिए सबसे पहले 'सिद्धम्' शब्द का प्रयोग हुआ, किर इसके लिए 1. हमने यह तालिका प्रो० रमेशचन्द्र दुबे के "भारतीय साहित्य' (अप्रैल, 1957) में प्रकाशित (पृ० १९४-१९६) लेख से ली है। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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