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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28/पाण्डुलिपि-विज्ञान कहने का तात्पर्य यह है कि इन प्रवृत्तियों का जानना जरूरी है, जो कि आदि, मध्य या पुष्पिका में लिखी रहती है। उपर्युक्त समस्त भूलों का निराकरण प्रधानतः तो प्रति के 'उद्देश्य' से हो सकता है । उद्देश्य का पता प्रति में हमें इस प्रकार लग सकता है :(अ) प्रति के प्रथम पत्र के प्रथम पृष्ठ पर लिखा हुआ मिलता है। (ब) प्रति के अन्त में (पुष्पिका के भी अन्त में) अन्तिम पत्र पर लिखा हुआ मिलता है। ये दोनों पत्राकार तथा शेष प्रकार की प्रतियों में पाये जाते हैं । (स) पुष्पिका के पश्चात् (संवत् आदि का उल्लेख करने के बाद) मिलता है । (द) यदि गुटकों, पोथी, या पोथियों आदि में कुछ रचनाएँ एक हस्तलेख में हों, और कुछ भिन्न में, तो प्रायः एक प्रकार के हस्तलेख के अन्त में मिलते हैं। कारण-ये संग्रह ग्रन्थ भी हो सकते हैं, जिनमें ध्येय यही रहता है कि अधिक से अधिक रचनाएँ सुविधापूर्वक एक साथ ही सुरक्षित रह सकें । इस कारण विभिन्न प्रकार की प्रतियों को (जो एक आकार के पन्नों पर हों) एकत्र कर जिल्द बंधवा ली जाती हैं । अतः अध्येता को ध्यानपूर्वक मध्य का अंश (जहाँ एक हस्तलेख समाप्त होता है और दूसरा प्रारम्भ होता है) देखना चाहिये । (क) कभी-कभी हाशिये में भी लिखा रहता है। ऐसे उदाहरण भी मिले हैं कि उद्देश्य अन्तिम पत्र के हाशिये में स्थान की कमी से नहीं लिखा जा सका, अतः लिपिकार ने उस पत्र के ठीक पूर्व के पत्र के दाएँ हाशिये पर शेषांश लिखा हो। इस पूर्व के पत्र पर लिखित अंश को हाशिये का शेषांश नहीं समझना चाहिये । एकाध प्रतियों में ऐसा भी लिखा मिला है कि उद्देश्य लिखा तो प्रारम्भ के पन्ने पर है, किन्तु समाप्ति पुष्पिका के पश्चात् की गई है। इसका उद्देश्य प्रति की एकान्विति को द्योतित करना होता है तथा एक लिपिकार द्वारा लिखित है यह.निर्दिष्ट करना होता है। 'उद्देश्य' में क्या लिखा रहता है ? निम्नलिखित वाक्यावली से उद्देश्य का पता लगाया जा सकता है। सीधे रूप में तो उद्देश्य कहीं भी लिखा रहता है, यह ध्यान में रखने की बात है । जहाँ ऐसा है भी, वहाँ यह निश्चित समझना चाहिये कि उसमें सचेष्ट विकृतियों के अनेक उदाहरण मिलेंगे। 1. लिपिकार अमुक का शिष्य है । 2. लिपिकार ने अमुक गाँव में अमुक गाँव में अमुक के घर में अमुक गाँव के अमुक निवास स्थान पर प्रति लिखी। 3. लिपिकार ने अमुक 'डेरे' पर अमुक साथरी में अमुक देश (बीकाण, जोधाण, जैसाण, मेवाड़ों, ढूंढाड़ों आदि) में लिखी । 4. लिपिकार ने अमुक समय में यात्रा (जातरा) में/मन्दिर में अमुक की सत्संगति में/अमुक अवसर पर (पाखातीज, गणेश चौथ, घूज, पून्यू आदि) प्रति लिखी। 5. लिपिकार ने अमुक के कहने पर/आदेश पर/प्रति लिखी। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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