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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 348/पाण्डुलिपि-विज्ञान भीतर भाग को भी नष्ट करते हैं। इनमें से एक हैं, पुस्तक कीट (Book-worm), तथा दूसरा सोसिड (Psocid) है। ये दोनों कीट ग्रन्थ के भीतर घुसपैठ कर भीतर के भाग को नष्ट कर देते हैं । बुकवोर्म या पुस्तक-कीट के लारवे तो ग्रन्थ के पन्नों में ऊपर से लेकर दूसरे छोर तक छेद कर देता है, और गुफाएँ खोद देता है । लारवा जब उड़ने लगता है तो दूसरे स्थानों पर पुस्तककीटों को जन्म देता है । इस प्रकार यह रोग बढ़ता है। सोसिड को पुस्तकों का जुं भी कहा जाता है । ये भीतर ही भीतर हानि पहुंचाते हैं, अतः इनकी हानि का पता पुस्तक खोलने पर ही विदित होता है । इनको दूर करने का इलाज वाष्प चिकित्सा है, पर यह वाष्प-चिकित्सा घातक गैसों से की जाती है-ये गैसें हैं, एथीलीन प्रॉक्साइड (Ethylene Oxide) एवं कार्बन डाई प्रॉक्साइड मिला कर वातशून्य (Vaccum) वाष्पन करना चाहिये । इसके लिए विशेष यन्त्र लगाना पड़ता है । यह यन्त्र व्यय-साध्य है, अतः बड़े ग्रन्थागारों की सामर्थ्य में तो हो सकता है, पर छोटे ग्रन्थागारों के लिए यह असाध्य ही है, अत: एक दूसरी विधि भी है : पैरा-डाइक्लोरो-बेनजीन (Para-dichloro benzene) या तरल किल्लोप्टेरा (Liquid Kelloptero) जो कार्बन टेट्राक्लोराइड और ऐथेलीन डाइक्लोराइड का सम्मिश्रण होता है, लिया जा सकता है । इसमें वाष्प-चिकित्सा के लिए एक स्टील की ऐसी अलमारी लेनी होगी, जिसमें हवा न घुस सके । इसमें खानों के लौह तख्तों में छेद कर दिये जाने चाहिये । इन तख्तों पर सम्पूर्ण लेखों को बिछा दिया जाता है और नत्थियों तथा ग्रन्थों को इस रूप में बीच खोल कर रख दिया जाता है । यदि पैरा-डाइक्लोरो-बेनजीन से वाष्पित करना है तो शीशे के एक जार (Jar) में एक घन मीटर के लिए 1.5 किलोग्राम उक्त रासायनिक घोल भर कर उक्त तख्तों के सबसे नीचे के तल में रख देना चाहिये और अलमारी बन्द कर देनी चाहिये । इसकी गैस हलकी होती है, अतः ऊपर की ओर उठती है । यह रसायन स्वयंमेव सामान्य तापमान में ही वाष्पित हो उठती है । सात-पाठ दिन तक रुग्ण ग्रन्थों को वाष्पित होने देना चाहिये । यदि किल्लोप्टेरा से वाष्पित करना है तो यह रसायन प्रति एक घन-मीटर के लिए 225 ग्राम के हिसाब से लेकर इसका पात्र सबसे ऊपर के तन्त्र में या खाने में रखना चाहिये । इसकी गैस या वाष्प भारी होती है, अतः यह नीचे की ओर गिरती है । सातआठ दिन इससे भी रुग्ण सामग्री को वाष्पित करना चाहिये । इससे ये कीट, इनके लारवे आदि सब नष्ट हो जायेंगे। पर संधियों में या जिल्द बंधने के स्थान पर बनी नालियों में इनके जो अंडे होंगे वे नष्ट नहीं हो पायेंगे, और ये अंडें 20-21 दिनों में लारवे के रूप में परिणत होते हैं, अतः पूरी तरह छुटकारा पाने के लिए उक्त विधि से 21-22 दिन बाद फिर वाष्पित करने की आवश्यकता होगी। दीमक : सभी जानते हैं कि दीमक का आक्रमण अत्यन्त हानिकर होता है । ऊपर जिन शत्रुओं का उल्लेख किया गया है वे दीमक की तुलना में कहीं नहीं ठहरते । दीमक का घर भूगर्भ में होता है। वहाँ से चल कर ये मकानों में, लकड़ी, कागज आदि पर आक्रमण करती For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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