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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रख-रखाव/343 डॉ० ब्यह्लर के उक्त कथन से उन सभी बातों की पुष्टि हो जाती है, जो हमने अन्य स्रोतों से दी हैं । कर्नल टॉड ने कृमि, कीटों से रक्षा के लिए जिस बुरादे का उल्लेख किया है, उसकी चर्चा ब्यूलर महोदय ने नहीं की। अच्छे बड़े भण्डारों में सूची-पत्र (कैटेलॉग) भी रहते थे, यह सूचना भी हमें टॉड महोदय से मिली थी। यह अवश्य प्रतीत हुआ कि लम्बे उपयोग के कारण जो ग्रन्थ इधर-उधर हो गये उनसे सूचीपत्र का ताल-मेल नहीं बिठाया जाता रहा; इसीलिए सूचीपत्र और सन्दूकों के ग्रन्थों में अन्तर पाया गया। सिले थैली-नुमा बस्तों में ग्रन्थों की रखने की प्रथा भी केवल जैन ग्रन्थागारों में ही नहीं, अन्य ग्रन्थागारों में भी मिलती है । ग्रन्थागारों में ग्रन्थों के वेष्टनों के ऊपर ग्रन्थनाम, ग्रन्थकर्त्तानाम, लिपिकर्तानाम, रचनाकाल, लिपिकाल, ग्रन्थप्रदाता का नाम, श्लोक संख्या आदि सूचनाएँ दाबों पर, पाटों या पुट्ठों पर लिखी जाती थीं। इससे बस्ते या पेटी के ग्रन्थों का विवरण मिल जाता था। बर्नेल मोहदय ने जाने कैसे यह आरोप लगा दिया था कि ब्राह्मण पांडुलिपियों को बुरी तरह रखते हैं । इसका ब्यूलर ने ठीक ही प्रतिवाद किया है कि यह समस्त भारत के सम्बन्ध में सही नहीं है, समस्त दक्षिण भारत के लिए भी ठीक नहीं। ब्यह्लर ने बताया है कि गुजरात, राजपूताना, मराठा प्रदेश तथा उत्तरी एवं मध्य भारत में कुछ अव्यवस्थित संग्रहों के साथ, ब्राह्मणों तथा जैनों के अधिकार में विद्यमान अत्यन्त ही सावधानी से सुरक्षित पुस्तकालयों को देखा है। ___इस कथन से भी यह सिद्ध होता है कि भारत में ग्रन्थों की सुरक्षा पर सामान्यतः अच्छा ध्यान दिया जाता था। प्राचीन काल में पाश्चात्य देशों में पेपीरस के खरीतों (Scrolls) को सुरक्षित रखने के लिए पार्चमेण्ट के खोखे बनाये जाते थे और उनमें खरीतों को रखा जाता था । बहुत महत्त्व के कागज-पत्रों को रखने के लिए भारत में भी लोहे या टीन के ढक्कन वाले खोखों का उपयोग कुछ समय पूर्व तक होता रहा है । कागज में विकृतियाँ कुछ अन्य कारणों से भी होती हैं, उनमें से एक स्याही भी है । श्री गोपाल नारायण बहुरा ने इस सम्बन्ध में जो टिप्पणी प्रस्तुत की है उसमें उन बातों का उल्लेख किया है जिनसे पांडुलिपियाँ रुग्ण हो जाती हैं। इन बातों में ही स्याही के विकार से भी पुस्तकें रुग्ण हो जाती हैं यह भी बताया है। साथ ही इन विकारों से सुरक्षित रखने के उपायों का भी उल्लेख किया है । यहाँ तक हमने प्राचीनकालीन प्रयत्नों का उल्लेख किया है किन्तु आधुनिक युग तों वैज्ञानिक युग है । इस युग के वैज्ञानिक प्रयत्नों से पांडुलिपियों की सुरक्षा के बहुत उपयोगी साधन उपलब्ध हुए हैं। अभिलेखागारों (अर्काइब्स), पांडुलिपि संग्रहालयों (मैन्युस्क्रिप्ट 1. The Encyclopedia Americana (Vol. IV), p. 224. 2. देखें द्वितीय अध्याय, पृ.52-611 3. "The ink used in making records is also important in determing the longevity of the record, certain kinds of ink tend to fade, the writing disappearing completely after a length of time. Other inks due to their acid qualities eat into the paper and destroy it. An ink in an alkaline medium containing a permanent pigment is what is required." -Basu, Purendu-Archives and Records : What are They ? For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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