SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रख-रखाव/341 बस्ते में बन्द करके रखते थे या उन्हें संदूक या पेटी में । उनके ऊपर ग्रन्थ-विषयक प्रावश्यक सूचना भी रहती थी। चूहे तथा कंसारी एवं अन्य जीव-जन्तुओं से रक्षा के लिए मुनिजी ने प्राचीन-जैनपरम्परा में घोड़ा बद्ध या सं० उग्रगंधा पुस्तकों की संग्रह-पेटियों में डाली जाती थी । कपूर का उपयोग भी इसीलिए किया जाता था। इसी के लिए यह विधान था कि पुस्तकें दोनों ओर से दावड़ों से दाब कर पुट्ठों को पावों में रख कर खूब कस कर बाँध दें। फिर इन्हें बस्तों में बाँध कर पेटी में रख दें। बाहरी प्राकृतिक वातावरण से रक्षा ___इस सम्बन्ध में मुनिजी ने बताया है कि धूप में ग्रन्थ नहीं रखे जाने चाहिये । यदि ग्रन्थों में चौमासे या बरसात की नमी बैठ गई हो तो धूप से बचा कर ऐसे गर्म स्थान में रख कर सुखाना चाहिये, जहाँ छाया हो। पुस्तकों में नमी के प्रभाव से पन्ने कभी-कभी चिपक जाते हैं । ऐसा स्याही के बनाने में गोंद मात्रा से अधिक पड़ जाने से होता है । नमी से बचने के लिए एक उपाय तो यही बताया गया है कि पुस्तक को बहुत कस कर बाँधना चाहिये, इससे कीड़े-मकोड़े से ही रक्षा नहीं होती, वातावरण के प्रभाव से भी बच जाते हैं। दूसरा उपाय यह बताया गया है कि चिपकने वाली स्याही वाले पन्नों पर गुलाल छिड़क देना चाहिये, इससे पन्ने चिपकेंगे नहीं। चिपके हुए पन्नों को एक-दूसरे से अलग करने के लिए यह आवश्यक है कि आवश्यक नमी वाली हवा उसे दी जाय और तब धीरे-धीरे सम्भाल कर पन्नों को एक-दूसरे से अलग किया जाय या चौमासे में भारी बरसात की नमी का लाभ उठा कर पन्ने सम्भाल कर धीरे-धीरे अलग किये जायें, और बाद में उन पर गुलाल छिड़क दिया जाय, अर्थात् भुरक दिया जाय। ताड़-पत्र की पुस्तकों के चिपके पन्नों को अलग-अलग करने के लिए भीगे कपड़े को पुस्तक के चारों ओर लपेट कर अपेक्षित नमी पहुँचायी जाय, और पन्ने जैसे-जैसे नम होते जायें, उन्हें अलग-अलग किया जाय । इस प्रकार जैन-शास्त्रीय परम्परा में ग्रन्थ-सुरक्षा के उपाय बताये गये हैं। और, इसी दृष्टि से हम 1822 ई० में लिखे अलिवाड़े के ग्रन्थ-भण्डार (पोथीभण्डार) के टॉड के वर्णन से कुछ उद्धरण पुनः देते हैं : क-"अब हम दूसरे उल्लेखनीय विषय पर पाते हैं वह है, पोथी-भण्डार अथवा पुस्तकालय जिसकी स्थिति जिस समय मैंने उनका निरीक्षण किया उस समय तक बिल्कुल अज्ञात थी।" ख-"तहखानों में स्थित है।" ग-"मेरे गुरु जी....... वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले वे भण्डार की पूजा करने के लिए जा पहुँचे । यद्यपि उनकी सम्मानपूर्ण उपस्थिति ही कुलुफ (मोहर) तोड़ने के लिए पर्याप्त थी परन्तु नगर-सेठ के आज्ञा पत्र बिना कुछ नहीं हो सकता था। पंचायत बुलाई गई और उनके समक्ष मेरे यति ने अपनी पत्रावली अथवा हेमाचार्य की प्राध्यात्मिक शिष्यपरम्परा में होने का वंश-वृक्ष उपस्थित किया, जिसको देखते ही उन लोगों पर जादू का-सा असर हुआ और उन्होंने गुरुजी को तहखाने में उतर कर युगों पुराने भण्डार की पूजा करने For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy