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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. मखदूम 2. नरावइ 3. दोष 4. हाथ 5. ददस www.kobatirth.org 6. दस : दिखाता है । 7. गार : नरक के जीव, प्रेतात्माएँ । : भूत प्रेत साधक मुसलमानी धर्म-गुरु : प्रसविया -- अर्थात् जो नरक के जीवों या प्रेतात्माओं का अधिपति हो । कीर्तिलता में एक पंक्ति है : " सराफे सराहे भरे बे वि बाजू || " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir : यातना देना । : शीघ्र, जल्दी । : हदस, (अरबी) – प्रेतात्माओं को अंगूठी के नग में दिखाने की प्रक्रिया | शब्द और अर्थ की समस्या / 325 1. वही, पृ० 95 2. वही, पृ० 145 "तोलन्ति हेरा लसूला पेप्राजू" । अर्थ करने वालों ने इसमें विशिष्टार्थक शब्दों को न पहचान सकने के कारण सराफे में लहसुन व प्याज और हल्दी तुलवा दी है । ठीक है, लला का ग्रर्थ लहसुन स्पष्ट है । प्याज का अर्थ भी स्पष्ट है । एक ने 'हेरा' को हलदी मान लिया । किंचित् ध्यान देने यह विदित हो जाता है कि एक इन अर्थों में 'प्रसंग' पर ध्यान नहीं रखा गया । वर्णन सराफे का है । सराफे में जौहरी बैठते हैं' । वहाँ हलदी, लहसुन, प्याज जैसे खाने में काम आने वाले पदार्थ कहाँ ? तो 'प्रसंग' पर ध्यान नहीं दिया गया । दूसरे, इन शब्दों के विशिष्ट अर्थ पर भी ध्यान नहीं गया । लसूला का अर्थ लहसुनिया नाम का रत्न, 'पेश्राजू' का अर्थ 'फीरोजा' नाम का रत्न, और हेरा 'हीरा' हो सकता है, इस पर ध्यान नहीं गया, जो जाना चाहिये था । इसी प्रकार 'कीर्तिलता 2 में ही एक अन्य चरण है : "चतुस्सम पल्वल करो परमार्थ पुच्छहि सियान" । इसमें 'चतुस्सम' शब्द है । किसी विद्वान के द्वारा इसमें आये 'चतुस्तम' का सामान्य अर्थ 'चौकोन' या 'चोकोर' कर लिया गया । वस्तुत: यह विशिष्टार्थक शब्द है । इसे लेकर हस्तलेखों के पाठों में भी गड़बड़झाला हुई है । वह गड़बड़झाला क्या है और इसका यथार्थ रूप और अर्थ क्या है, यह डॉ० किशोरीलाल के शब्दों में पढ़िये : "डाँ० वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार जायसी - कृत पद्मावत में प्राप्त 'चतुरसम' पाठ को न समझने के कारण इसका पाठ 'चित्रसम' किया गया । फारसी में चित्रसम और 'चतुरसम' एक-सा पढ़ा जा सकता है, अतः 'चतुरसम' पाठ सम्पादक को क्लिष्ट लगा और 'चित्रसम' सरल । जायसी के मान्य विद्वान् आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने 'चित्रसम' पाठ ही माना। यही नहीं कहीं-कहीं उन्होंने 'चित्रसब' पाठ भी किया है— करिस्नान चित्र सब सारहूँ — जायसी ग्रन्थावली पृ० 121 || शुद्ध पाठ 'चतुरसम' ही है । इसे डॉ० अग्रवाल ने पूर्ववर्ती रचनाओं से प्रमाणित भी किया है, यथा-जायसी से दो शताब्दी पूर्व के 'वर्ण रत्नाकार' में भी चतुःसम का प्रयोग मिला है -- ' चतुःसम हथ लिये For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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