SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 302/पाण्डुलिपि-विज्ञान इस 'ध्वन्यालोक' की पुष्पिका में इसका नाम 'सहृदयालोक' भी दिया गया है और काव्यालोक भी । 'सहृदयालोक' के आधार पर एक विद्वान् ने यह सुझाव दिया कि 'सहृदय' कवि का या लेखक का नाम है, इसी ने कारिकाएं लिखीं। 'सहृदय' को कवि मानने में प्रो० सोवानी ने लोचन के इन शब्दों का सहारा लिया है : 'सरस्वत्यास्तत्त्वं कविसहृदयाख्यं विजयतात् ।' यह ध्यान देने योग्य है कि यहाँ सहृदय का अर्थ सहृदय अर्थात् साहित्य का आलोचक या वह जो हृदय के गुणों से युक्त है, हो सकता है । 'कवि सहृदय' का अर्थ 'सहृदय' नाम का कवि नहीं वरन् कवि एवं सहृदय व्यक्ति है। 'सहदय' के द्वयर्थक होने से किसी निर्णय पर निश्चयपूर्वक नहीं पहुंचा जा सकता। किन्तु 'सहृदय' नामक व्यक्ति ध्वनि सिद्धान्त का प्रतिपादक था इसका ज्ञान हमें 'अभिघावृत्ति-भातृका' नामक ग्रंथ से, मुकुल और उसके शिष्य प्रतिहारेन्दुराज के उल्लेखों से विदित होता है । तो क्या 'कारिका' का लेखक 'सहृदय' था। राजशेखर के उल्लेखों से यह लगता है कि आनन्दवर्धन ही कारिकाकार है और वृत्तिकार भी--अर्थात् कारिका और वृत्ति के लेखक एक ही व्यक्ति हैं। उधर प्रतिहारेन्दुराज यह मानते हुए कि कारिकाकार 'सहृदय' है, आगे इंगित करते हैं कि वृत्तिकार भी 'सहृदय' ही हैं ? प्रतिहारेन्दुराज ने प्रानन्दवर्धन के एक पद्य को 'सहृदय' का बताया है। उधर 'वक्रोक्ति जीवितकार' ने आनन्दवर्धन को ही ध्वनिकार माना है। समस्या जटिल हो गईक्या सहृदय कोई व्यक्ति है ? लगता है, यह व्यक्ति का नाम है। तब क्या यही कारिकाकार है और बृत्तिकार भी । या वृत्तिकार आनन्दवर्धन हैं, और क्या वे ही कारिकाकार भी हैं ? क्या कारिकाकार और वृत्तिकार एक ही व्यक्ति हैं या दो अलग-अलग व्यक्ति हैं ? इस विवरण से यह विदित होता है कि समस्या खड़ी होने का कारण है : 1. कवि ने ध्वन्यालोक में कहीं अपना नाम नहीं दिया। 2. एक शब्द 'सहृदय' द्वयर्थक है-व्यक्ति या कवि का नाम भी हो सकता है और सामान्य अर्थ भी इससे मिलता है। 3. किसी ने यह माना कि कारिकाकार और वृत्तिकार एक है और वह सहृदय है; नहीं, वह अानन्दवर्धन है, एक अन्य मत है। 4. किसी ने माना कारिकाकार भिन्न है और वृत्तिकार भिन्न है। इन सबका उल्लेख करते हुए और खण्डन-मण्डन करते हुए काणे महोदय ने निष्कर्षतः लिखा है कि : “At present I feel inclined to bold (though with hesitation) that the लोचन is right and that प्रतीहारेन्दुराज, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र and others had not the correct tradition before them. It seems that may was eithers the name or title of the कारिकाकार and that आनन्दवर्धन was his pupil and was very closely associated with him. This would serve to explain the confusion of authorship that arose within a short time. Faint indications of this relationship may be traced in the ध्वन्यालोक. The word "सहृदय मनः 1. Kane, P V.-Sahityadarpan (Introdution), p. LX. For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy