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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 292/पाण्डुलिपि-विज्ञान या लिपिकार का लिखने का अपना ढंग होता है। इसमें लिपि का पहला स्थान है : इसमें देखना होता है कि कौनसी लिपि में लेखक ने लिखा है ? यही नहीं, वरन् यह भी देखना होता है कि जिस लिपि में उसने लिखा है, उसके किस रूप में और अक्षर के किस प्रकार में लिखा है । लिपि का भी इतिहास होता है, और उसकी वर्णमाला के अक्षरों का भी होता है । प्रत्येक लेखक कालगत स्थिति में अपनी पद्धति में लिखता है। इसे भी क्या काल-निर्धारण का प्राधार बनाया जा सकता है, यह देखना होता है। लेखन में अलंकरणों का भी स्थान होता है । लिपि को भी विविध प्रकार से अलंकृत किया जाता है, तथा लेख में जहाँ-तहाँ मंगल उपकरणों से तथा अन्य प्रकार से सजाया जाता है। क्या इनसे भी काल-निर्णय में कोई सहायता मिल सकती है, यह भी देखना होगा । पृष्ठांकन प्रणाली का अन्तर भी इसी वर्ग में प्रायेगा। सचित्र ग्रन्थ हो तो चित्र-योजना पर भी काल-निर्धारण की दृष्टि से विचार करना होगा। इनके बाद हमें यह अनुसंधान भी करना होगा कि क्या कोई और ऐसा तत्त्व हो सकता है जो व्यक्तिगत पक्ष में प्राता हो और उक्त वस्तुओं में न आ पाया हो । अब हम पहले वस्तुगत पक्ष में कागज को लेते हैं। कागज = लिप्यासन यहां कागज का व्यापक अर्थ लिया गया है, इसीलिए इसे 'लिप्यासन' नाम दिया गया है। यह हम पहले देख चुके हैं कि लिप्यासन में पत्थर, ईंट, धातु, चमड़ा, पत्र, छाल, कागज आदि सभी पाते हैं । हम यह देख चुके हैं कि लिप्यासनों के प्रकारों से लेखन के विभिन्न युगों से सम्बन्ध है। इंटों पर लेखन ईसा के 3000 वर्ष पूर्व तक हुआ, यह माना जा सकता है। इसी प्रकार 3000 ई०पू० से पेपीरस के खरड़ों (Rolls) का युग चलता है। ई०पू० 1000 से 800 के बीच कोडेक्स या चर्म-पुस्तकों का युग प्रारम्भ हुआ माना जा सकता है। तब कागज का प्रारम्भ चीन से होकर यूरोप पहुंचा। सन् 105 ई० से कागज का प्रचार ऐसा हा कि अन्य लिप्यासनों का उपयोग समाप्त हो गया। भारत में कागज सिकन्दर के समय में भी बनता था किन्तु ईंटों के बाद पत्थर, और उसके बाद ताड़-पत्र एवं भूर्ज-पत्रों का उपयोग विशेष होता रहा। भूर्ज-पत्र से भी अधिक ताड़-पत्र का उपयोग भारत में हुअा है। ___ कागज का प्रचार सबसे अधिक हुआ है। . ये लिप्यासन काल-निर्धारण में केवल इसीलिये सहायक माने जा सकते हैं कि इन पर भी काल का प्रभाव पड़ता है। काल का प्रभाव अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में अलग-अलग पड़ता है। नेपाल में ताड़-पत्रीय संस्कृत ग्रन्थों के अनुसन्धान के विवरण में यह उल्लेख है कि ताड़पत्र-ग्रन्थों के लिये नेपाल का वातावरण, जलवायु अनुकूल है । वहाँ कालगत प्रभाव जलवायु से कुछ परिसीमित हो जाता है। फिर भी, प्रभाव पड़ता तो है ही । इसी काल-प्रभाव को अभी तक केवल अनुमान से ही बताया जाता रहा है। यह अनुमान पांडुलिपि-विज्ञानवेत्ता या पांडुलिपियों से सम्बन्धित व्यक्ति के अनुभव पर निर्भर करता है। अनुभवी व्यक्ति ग्रन्थ के कागज का रूप देख कर यह बात बता सकता है कि अनुमानतः यह पुस्तक कितनी पुरानी हो सकती है। यह अनुभवाश्रित अनुमान अन्य प्रयोग मे पुष्ट भी होना चाहिये । यदि प्रमाण मे पुष्ट नहीं होता तो यह तभी तक दुर्बल For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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