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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काल निर्धारण 257 भी कठिनाई थी कि 'वहोत्तराहां' का अर्थ प्राचार्य शुक्ल की भांति 1212 किया जाए या 12 मै 72 (1272) किया जाय । आचार्य शुक्ल ने 1212 के साथ तिथि को पंचांग से पुष्ट कर लिया है, क्योंकि कवि ने केवल संवत् ही नहीं दिया वरन् महीना-जेठ, पक्ष वदी (कृष्ण पक्ष), तिथि नवमी और दिन बुधवार भी दिया है । 1212 को प्रामाणिक मानने के लिये यह विस्तृत विवरण पंचांग सिद्ध हो तो संवत् भी सिद्ध माना जा सकता था। पर पाठ-भेदों के कारण यह सिद्ध संवत् भी अप्रामाणिक कोटि में पहुँच गया। अतः अर्थान्तर की कठिनाई पंचांग के प्रमाण से दूर होते-होते, पाठान्तर के झमेले में निरर्थक हो गई। पाठ-दोष की कठिनाई हस्तलेखों में बहुत मिलती है, यथा--- "संवत् श्रुति शुभ नागश शि, कृष्णा कार्तिक मास __रामरसा तिथि भूमि सुत वामर कीन्ह प्रकास' यहाँ टिप्पणी यह दी गई है कि "शुभ के स्थान पर जूग किये बिना कोई अर्थ नहीं बैठता ।" अत: 'शुभ' पाठ-दोष का परिणाम है। 'पाठ-दोष' को दूर करने का वैज्ञानिक साधन, पाठालोचन ही है, पर जहाँ मात्र ग्रन्थ-विवरण लिये गये हों वहाँ दोष की ओर इंगित कर देना भी महत्त्वपूर्ण माना जायगा, 'शुभ' के स्थान पर 'जुग' रखने का परामर्श पाठालोचन के अभाव में अच्छा परामर्श माना जा सकता है । इस कवि की प्रकृति भी 'अंकों' को शब्दों में देने की हैं : इसीलिये तिथि तक भी राम = 3 एवं रसा = | ( = 13 = त्रयोदशी) अंकानां वामतो गति: से बतायी है । ___ पाठ-दोष का यह रूप उस स्थिति का द्योतक है जिसमें मूल पाठ से प्रति प्रस्तुत करने में दोष आ जाता है। 'पाठ-दोष' के लिये 'भ्रान्त-पठन' मूल कारण होता है । एक और उदाहरण तेरहवें खोज विवरण से दिया जाता है किन्तु लिपिकारों ने प्रतिलिपि में ऐसी भयंकर भूलें की हैं कि ग्रन्थारम्भ का समय 'एकादश संवत् समय और पाठ निराधार' हो गया है, जिसका अर्थ होगा 11+ 60 = 71 जो निरर्थक है । पहला शब्द 'एकादश' नहीं है, यह 'सत्रहस' होना चाहिये अर्थात् 1700 +60 = 1760, जो समाप्ति काल के पद्य से सिद्ध हो जाता है : "गये जो विक्रम वीर विताय । सत्रह से अरू साठि गिनाय" ऐसे ही एक लिपिकार ने 'साठि' का 'पाठि' करके ५२ वर्ष का अन्तर कर दिया है। फिर भी यह तो बहुत ही आश्चर्यजनक है कि दो भिन्न-भिन्न लिपिकारों ने 'सत्रह सै' को 'एकादश' कैसे पढ़ लिया ? अवश्य ही यह दोष उस प्रति में रहा होगा, जिससे इन दोनों ने प्रतिलिप की है। अथवा, यह विदित होता है कि इस प्रकार 'सत्रह सै' को 'एक दश' लिखने वाले दो व्यक्तियों में से एक ने दूसरे से प्रतिलिपि की तभी एक के भ्रान्त पाठ को दूसरे ने भी 1. 2. योदश वैवार्षिक विवरण, पृ० 28। वही, पृ० 861 For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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