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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठालोचन 239 (1) 1. मो. में यहाँ 'पुन' है, जो अन्य किसी प्रति में नहीं है । 2. धा. या, नो. जां. शेष में 'जा'। 3. मो. रागुरु वांश, धा. गंधरसिका, स. राग रुचयं म. प्र. प्रागा (घ्रान-म.) लुब्धा, ना-लुब्धा । 4. मो. भार, ना. अ. भोर स. भूर. म. भौंर । 5. म. पाच्छादितं । (2) 1. मो. आधार, स. आधार, ना. म. अ. बिहार (तुल० अगले छन्द का चरग ।) 2. मो. गुनीजा, धा. गुनीजा, म. गुनया, ना. अ. गुगजा। 3. मो. झंच. पया. धा. रंजा पिया, अ. रुजा पया, ना. रंजा पया झंझा पया । (3) 1. धा. म. या, शेष में 'जा' । 2. मो. सुत कुंडलं । 3. मो. नवं धा. नव, ना. गाव, अ. फ. करा, म. करि, स. कर । 4. मो. धुंडीर, अ. तुद्धीर, म. जुदीर, ना. धुंदीर । 5. मा. उदारवं । (4) 1. मो. स. सेस सालं (शेष सफलं--भो.) धा. सतत फलं, अं. ना. सेवित फलं । 2. मो. काहितं, मं स, काव्यं कृतं ।। इसमें ऊपर प्रामाणिक पाठ दिया हुआ है । नीचे 'पाठान्तर' शीर्षक से मूल प्रामाणिक पाठ के शब्दों से भिन्न शब्द रूपों का उल्लेख किया गया है, और साथ में प्रति संकेत दिया गया है 'धा' 'ना' 'यो' 'स' 'व', 'अ' 'फ'-ये अक्षर प्रतियों के संकेताक्षर हैं। प्रामाणिक पाठ निर्धारित करने में बहुत-सी सामग्री 'प्रक्षेप' के रूप में अलग निकल जाएगी। उस सामग्री को ग्रन्थ में 'परिशिष्ट' रूप में, उसके पाठ को भी यथासम्भव प्रामाणिक बनाकर दे देना चाहिये । इस प्रकार इस समस्त सामग्री को सजा देने में सिद्धान्त यह है कि 'पाठालोचन' की वैज्ञानिक कसौटी में यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो विद्वान पाठक अपनी कसौटी से समस्त सामग्री की स्वयं जाँच कर सके। अनुसंधानकर्ता का और कोई आग्रह नहीं होता, अतएव भूलचूक के लिए वह स्वयं समस्त सामग्री और समस्त प्रक्रिया को विज्ञ पाठक के समक्ष रख देता है। पाठानुसंधान की वैज्ञानिक प्रक्रिया के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह होता है कि 'अर्थ-न्यास' का पाठालोचन में क्या महत्त्व है ? यों तो यह सत्य है कि किसी भी कृति का पाठ उसका अर्थ प्राप्त करने के लिए ही किया जाता है । विकृत पाठ से अपेक्षित अर्थ नहीं पाया जा सकता, ऐसे अर्थ को प्रामाणिक भी नहीं माना जा सकता। पाठालोचन का महत्व ही इसी अर्थ के लिए है पर यथार्थ यह है कि पाठालोचन प्रक्रिया में 'अर्थ' का विशेष महत्त्व नहीं हो सकता। वह सहायक अवश्य है। 'शब्द' के अर्थ का ज्ञान अध्ययन परिमाण-सापेक्ष्य है । यदि 'क' का ज्ञान बहुत सीमित है तो कभी-कभी वह एक क्षेत्र के बहुप्रचलित शब्द का अर्थ भी नहीं जानेगा और अर्थ को दृष्टि में रखेगा तो अपने सीमित ज्ञान से त्रुटिपूर्ण संशोधन कर देगा । जैसे यदि कोई ब्रज में प्रचलित 'हटरी' से परिचित नहीं है तो वह सूरसागर में इस शब्द को 'हट री' (हटरी) कर सकता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में 'हटरी' कोई शब्द ही नहीं । पाठालोचनकार भी शब्दों के समस्त अर्थों से परिचित होगा, विशेषतः कृतिकालीन अर्थ से यह सम्भव नहीं। अतः पाठ विज्ञान से जो रूप निर्धारित हो उसे ही रखना चाहिये, क्योंकि कोई ऐसा शब्द हो सकता 1. मुप्त, माताप्रसाद (डॉ.)-पृथ्वीराज रास3, पृ. 31 For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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