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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org पाण्डुलिपि-विज्ञान और उसकी सीमाएं/7 में बांधकर सैद्धान्तिक विचार करता है । इनके आधार पर वह ऐसे निष्कर्ष प्रस्तुत करता है जिनसे तत्सम्बन्धी विभिन्न प्रश्नों और समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। पांडुलिपि-विज्ञान पांडुलिपि से सम्बन्धित तीनां पक्षों से सम्बन्धित होता है, ये पक्ष हैं : लेखन पक्ष, पांडुलिपि का प्रस्तुतीकरण पक्ष, जिसमें सभी प्रकार की पांडुलिपियाँ परिगणनीय हैं और तीसरा सम्प्रेषण पक्ष, जिसमें पाठक वर्ग सम्मिलित होता है, पांडुलिपि लेखक और पाठक इन दोनों पक्षों के लिए सेतु या माध्यम है । अतएव पांडुलिपि के अपने पक्ष के साथ पांडुलिपि-विज्ञान इन दोनों पक्षों का पांडुलिपि के माध्यम से उस अंश का जिस अंश के कारण पांडुलिपि हस्तलेख में ग्राती है वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन करता है । यह विज्ञान पांडुलिपि के समग्र रूप के निर्माण में इन दोनों पक्षों के योगदान का भी मूल्यांकन करता है। ग्रन्थ रचना की प्रक्रिया में मूल अभिप्राय है लेखक का यह प्रयत्न कि वह पाठक तक पहुंच सके और आज के पाठक तक ही नहीं दीर्घाति-दीर्घकालीन भविष्य के पाठकों तक पहुंच सके । 'लेखन' क्रिया का जन्म ही अपनी अभिव्यक्ति को भावी युगों तक सुरक्षित रखने के लिए हुया है। फलतः लेखन के परिणामस्वरूप प्राप्त अन्य या पांडुलिपि लेखक के विचारों को सुरक्षित रख कर उसे पाठक तक पहुँचाते हैं । इस प्रकार पांडुलिपि एक सेतु या उपादान है जो काल की सीमाओं को लाँघ कर भी लेखक को पाठक से जोड़ता है । पाठक भी इन्हीं के माध्यम से लेखक के पास पहुँच सकता है । इसे यों समझा जा सकता है : भाषा-लिपि AA पाण्डुलिपि लिपि भावा कश्य. भाषा-लिपि लेखक-कश्य । पाठक भाषानिधि भाषा लिपि भावाला लेखक का कथ्य भाषा में रूपान्तरित होकर लिपिबद्ध होकर लेखनी से लिप्यासन पर अंकित होकर पांडुलिपि का रूप ग्रहण कर पाठक के पास पहुँचता है । अब पाठक ग्रन्थ के लिप्यासन या लिपिबद्ध भाषा के माध्यम से लेखक के कथ्य तक पहुँचता है । लेखक और पाठक में काल गत और देशगत अन्तर है, और यह अन्तर ग्रन्थ के द्वारा शून्य हो जाता है, तभी तो आज हजारों वर्ष पूर्व के काल को लांघकर देश काल के अन्तराल को मिटाकर हम लेखक से मिल सकते हैं। फिर भी, लेखक से पाठक तक या पाठक से लेखक तक की इस यात्रा में समस्याएं खड़ी होती हैं । उनके समाधान का महत्त्वपूर्ण साधन पांडुलिपि है । इसी महत्त्वपूर्ण साधन तक पहुँचने की दृष्टि से पांडुलिपि-विज्ञान की उपादेयता सिद्ध होती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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