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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठालोचन/225 ऐसा श्रेष्ठतम भाव है, जो कवि को अपेक्षित रहा होगा, 'प्रथा जब वह समझता है कि दोनों ही या दोनों में से कोई भी पाठ कविसम्मत "हो सकता हैं, क्योंकि उत्कृष्टता में उसे दोनों एक-दूसरे से कम नहीं लगते तब वह एक पाठ के साथ दूसरी पाठे विकल्प में दे देता है। इसे वह पाठान्तर की तरह पाद टिप्पणी के रूप में भी दे सकता है। इसी प्रणाली का आगे का चरण वह होता है. जिसमें पाठालोचनकार को.दो से अधिक हस्तलिखित प्रतियाँ मिल जाती हैं । इन समस्त प्रतियों के पाठों में से वह उस पाठ Edi को ग्रहण कर लेता है जो उसे अपनी दृष्टि से सर्वोत्तम लगता है । अब वह अन्य प्रतियों के सभी पाठों को पाठान्तर के रूप में पद के नीचे दे देता है ।। वैज्ञानिक चरण और अब कह चरल पाता है जिसे वैज्ञानिक चरण कह सकते हैं। इस चरण की प्रमाली में कई हस्तलेखों की तुलना की जाती है । अव सुलधात्मक अाधार पर प्रायः प्रत्येक प्रति में मिलने वाली त्रुष्टियों में साम्य वैषम्य देखा जाता है। इसके परिणाम के आधार पर इन समस्त हस्तलेखों का एक वंशवृक्ष तैयार किया जाता है और कृति का आदर्श पाठ "स्वेच्छया पाठ निर्धारण - का ऐसा ही रोचक वृत्तांत., होमर-काव्य के प्रात-निर्धारण के सम्बन्ध में मिलता है । यह माना जाता है कि जेनोडोटस ने व्यवस्थित आलोचना (पामलोचन) की नींव रखी यो। उसने कुछ सिद्धान्त निर्धारित किए थे : (1) समस्त ग्रन्थं के परिप्रेक्ष्य में जो सामग्री. विरुद्ध है अथवा अनावश्यक है, उसे निकाल दिया जाय।" (2) कवि की प्रतिभा की दृष्टि से जो सामग्री अयोग्य लगे उसे भी अस्वीकार कर देना चाहिए । इन सिद्धान्तों के आधार पर अपने ढंग से उसने लम्बे प्रघटकों को काट का, अन्यों की स्वेच्छया परिवर्तित कर दिया तथा इधर-उधर रख दिया। संक्षेप में यह सब उसने उसी प्रकार मिाया जिा प्रकार पहन अपनी कृति में फरता । उसके बाद के गम्भीर आलोचकों को इस प्रणाली से बहत धक्का लगा।" -विलियम स्मिथ-डिक्शनरी ऑफ ग्रीक एण्ड रोमन बायोग्राफी एण्ड माइथालोजी, पृ. 510. keyr7: स्वेच्छया पाठ-मिरिका का यही परिणाम होता है। जैनेडोट्स का समय सिकन्दर महान् के बाद पडती है "होमर के साथ एक और बात भी यौ। होमर का सम्पूर्ण काव्य पहले कंठस्थ ही था। पीजिस्ट्रेटस के समय से होमार, काव्य लिपिबद्ध किया गया। पाठालोचन की समस्या वस्तुतः जैनोडोट्स के समय से ही खड़ी हुई। इस समय तक होमर का काव्य-अध्ययमाऔर चर्चा का विषय बन गया था कएल सी. वाइडीच के समय में ही होमर: का काव्य माठशालाओं में अनिवार्यतः पढ़ाया जाने लगा था। इसी समय के लगभग समाज मे दो कर्म हो गए थे एक वर्ग उसके काव्य में नैतिकता के रूप में असन्तुष्ट था, इसरा उस रूपक माला पार उसका पोषक था। इस स्थिति में भी होमर-काव्य के लिखित रूपों की मांग बढ़ी सिवादर महान तो इस काव्य-ग्रन्थ को एक राजसी सुन्दर पेटिको'मैं सदा अपने । गए। तब अलेक्जण्डिया में आलोचकों को दल बड़ा हुआ और पाठालोचनात्मक संस्करण होमर काव्य के प्रस्तुत किए जाने लगे। यहीं से वैज्ञानिक पाठालोचन प्रणाली का मी. जन्म माना जा 1. सकता है सरसमी देशों की आरम्भिक कृतियाँ कंठस्था रहती हैं. भारत में भी वेद मंठस्थ रखे जाते थे और इनका इतना महत्व या ठिस्थ स्थिति में ही 'यहाँ के ऋषियों में कई प्रकार के पाठों का आविष्कार किया और इन-पाछे की प्रणालियों से वेदों की वर्ण-शब्द संरचना सबकी विकृति से रक्षा कोतया प्रक्षेपों से भी रक्षा की वेद मंत्र थे और यह धारणा इस कॉल में प्रबल थी कि किंचित भी विकृत उच्चारण से कुछ का कुछ परिणाम हो सकता है। अत: वर्दी की पाठ-शुद्धि पर बईत अधिक ध्यान दिया गया For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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