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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठालोचन/217 - 'काव्य निर्णय' (भिखारीदास) में एक चरण है : "अहट करै ताही करन" चरबन फेरबदार इसे एक ने लिखा च रबन के खदार दूसरे ने चिरियन फे र बदार तीसरे ने चरवदन फे खदार चौथे ने चखन फेरबदार प्रमाद का परिणाम लिपिक पुष्पिकाओं में यही कहता है कि "मक्षिका स्थाने मक्षिका पात" किया गया है, "जैसा देखा है वैसा ही लिखा है" पर ऊपर के उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि लिपिक ऐसा करता नहीं या कर नहीं पाता । जो रचयिता ने लिखा होता है उसे पढ़कर ही तो लिपिक लिखेगा और पढ़ने एवं लिखने दोनों में अज्ञान और प्रमाद से कुछ का कुछ परिणाम जाता है । ऊपर दिये गये उदाहरण लिपिक के प्रभाव के उदाहरण हैं। यह प्रमाद 'दृष्टिकोण' कहा जा सकता है। पर एक अन्य प्रकार का प्रमाद हो सकता है इस प्रभाद को 'लोपक प्रमाद' कह सकते हैं। इसमें लिपिक किसी शब्द को या वाक्य के -किसी अंश को ही छोड़ जाता है। छूट और भूल और आगम और अन्य विकार उदाहरणार्थ, लिपिक सरवर का 'सवर' भी लिख सकता है। वह 'र' लिखना ही भूल गया । बिन्दु, चन्द्र बिन्दु तथा नीचे ऊपर की मात्राओं को भूलने के कितने ही उदाहरण मिल सकते हैं। कभी-कभी लिपिक प्रमाद में किसी प्रक्षर का पागम भी कर सकता है। एक ही अक्षर को दो बार लिख सकता है। कभी लिपिक रचनाकार से अपने को अधिक योग्य समझ कर या किसी शब्द के अर्थ को ठीक न समझ कर अज्ञान में अपनी बुद्धि से कोई अन्यार्थक शब्द अथवा वाक्यसमूह रख देता है। 'छरहटा' लिपिक को जंचा नहीं तो उसने 'चिरहटा' कर दिया, अथवा 'चिर हटा' को 'छर हटा' । अभी कुछ वर्ष पूर्व जायसी के पाठ को लेकर इन दो शब्दों पर विवाद हुआ था। इसी प्रकार कहीं उसने सूर के पद में 'हटरी' शब्द देखा, वह इससे परिचित नहीं था उसे 'हरी' (अर्थात् अरी हट) कर दिया । ऐसी ही भूल 'पाखत ले' को 'पाख तले' करने और बाद में उसे 'प्राँख तले' करने में भी है। से लिपिकार के प्रमादों के कारण पाठ में बड़े गम्भीर विकार हो जाते हैं। ऐसे ही लिपिकों के लिए डॉ. टैसीटरी ने यह लिखा था कि मैं 'वचनिका' की उन तेरह प्रतियों का वंशवृक्ष नहीं बना सका क्योंकि एक तो प्रतियां बहत अधिक मिलती हैं. दूसरे, “In the peculiar Conditions under which bardic works are handed down, subject to every sort of alternations by the Copyists who generaly are bards themselves and often think themselves authorized to modefy ori***improve any text they Copy to suit their tastes or ignorance as the case may be'. (वचनिका, भूमिका, पृ.9'लिपि समस्या' शीर्षक अध्याय में डॉ० हीरालाल माहेश्वरी ने भी कुछ ऐसी ही बातों की ओर ध्यान आकर्षित कराया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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