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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 214/पाण्डुलिपि-विज्ञान लिखते समय यदि शब्द तो पूरा लिखा गया किन्तु मात्रा छूट गई या स्थान नहीं रहा तो वह बाएँ या दाएँ हाशिये में लिखी जाएगी। आधे वाला नियम यहाँ भी लागू होगा । इससे कभी-कभी बड़ा भ्रम उत्पन्न हो जाता है। इस सम्बन्ध में तीसरी स्थिति यह है कि यदि आधा शब्द लिखा गया और एक या अधिक उसके अक्षर लिखे जाने से रह गए तो लिपिकार हाशिये में एक चिह्न (5) देता है, इसको प्रा (1) या पूर्ण विराम (1) समझना चाहिए। यह सदैव दाएँ हाशिए में ही होगा । उदाहरणार्थ एक शब्द 'प्रकरण' को लें। लिखते समय पूर्व पंक्ति में अक तक लिखा गया क्योंकि बाद में हाशिया आ गया था । इसको यों लिखा जाएगा-अक । रण । भूल से इसको अकारण न समझना चाहिए। . (हाशिया) विद्वानों ने उपयुक्त चारों वर्गों वाली अनेक भूलें की हैं । पाठ को हड़बड़ी में पढ़ने, प्रतिप्रकृति को ठीक से न समझने आदि-आदि के कारण ऐसी भूलें हुई हैं । एक अत्यन्त मनोरंजक उदाहरण यहाँ दिया जा रहा है । डॉ० सियाराम तिवारी ने अपने शोध प्रबन्ध 'मध्यकालीन हिन्दी खण्ड काव्य' में रामलता कृत रुक्मणी-मंगल का परिचय दिया है। उस मूल प्रति में पन्नों का व्यतिक्रम था जो डॉ. तिवारी के ध्यान में नहीं आया । ध्यान में न आने का कारण यह था कि 'मंगल' में छन्द संख्या क्रम से न होकर रागों के अन्तर्गत पृथकपृथक है । क्रम से यदि संख्या होती तो वे संगति बैठा लेते । इस प्रति को क्रमानुसार (अरेन्ज) न करके उसी रूप में उन्होंने लिखा है। इस कारण उनका यह समूचा अंश सर्वथा गलत और भ्रांतिपूर्ण हो गया है। __ (ई) उदात्त-अनुदात्त ध्वनियों से सम्बन्धित कोई चिह्न नहीं है, केवल प्रसंग, अर्थ और अनुभव ज्ञान से ही सहायता मिल सकती है । कहीं-कहीं तो यह भी संभव नहीं है । एक उदाहरण यह है, शब्द है 'सांड' यह सांड भी हो सकता है और सांड भी । सां'-ड का तात्पर्य ऊँटनी है । जहाँ अनेक पशुओं की नामावली आदि हो, वहाँ बड़ी भ्रांति की संभावना है, क्योंकि उदात्त और अनुदात्त शब्द के अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं । इसी प्रकार धन और ध'न है । धन अर्थात् सम्पत्ति और ध'न (ध'ण) अर्थात् पत्नी। उपसंहार इस अध्याय को समाप्त करने से पूर्व एक बात की ओर ध्यान आकर्षित करना अावश्यक प्रतीत होता है । गुजरात के पुस्तकालयों/ग्रंथागारों के ग्रंथों को पढ़ने के लिए एक अक्षरावली एक विद्वान ने शोध-छात्र को दी थी । प्रश्न यह है कि वह उन्हें कहाँ से उपलब्ध हई थी ? फिर डॉ० माहेश्वरी ने जो विविध अक्षर-रूपों को उद्धृत कर उदाहरणपूर्वक हस्तलेखों को पढ़ने की अड़चनों की ओर संकेत किया है, उसके लिए उन्हें सामग्री किसने दी ? दोनों का उत्तर है कि 'स्वानुभव' से । इन दो उदाहरणों से मिले इस निष्कर्ष के अनुसार पाण्डुलिपि विज्ञानविद् को चाहिये कि वह अन्य क्षेत्रों में पाण्डुलिपियों को देखकर उनके आधार पर ऐसी ही क्षेत्रीय लिपि-मालाएं तैयार कराये । ये स्वयं उसके उपयोग में आ सकेंगी तथा अन्य अनुसंधित्मनों को भी पाण्डुलिपियों की शोध में सहायक हो सकेंगी। ... विविध क्षेत्रीय वर्णमालाओं के समस्या-शोधक रूप प्रस्तुत हो जाने पर तुलनात्मक आधार पर आगे के चरण को प्रस्तुत कर सकना संभव होगा। इस प्रकार किसी भी एक लिपि के व्यवहार-क्षेत्र की समस्त समस्याएँ एक स्थान पर मिल सकेंगी और उनके समाधान का मार्ग भी तुलनात्मक पद्धति से प्रशस्त हो सकेगा। For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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