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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 188/पाण्डुलिपि-विज्ञान प्राचीन से प्राचीनतम लेखों को पढ़ने में पूरी सफलता मिली। अब, उतनी ही पुरानी दूसरी लिपि की शोध का विवरण दिया जाता है। इस लिपि का ज्ञान भी प्रायः उसी समय में प्राप्त हुआ था। इसका नाम खरोष्ठी लिपि है । खरोष्ठी लिपि आर्य लिपि नहीं है अर्थात् अनार्य लिपि है यह । सेमेटिक लिपि के कुटुम्ब को परमेइक् लिपि से निकली हुई मानी जाती है। इस लिपि को लिखने की पद्धति फारसी लिपि के समान है अर्थात् यह दायें हाथ से बायीं ओर को लिखी जाती है। यह लिपि ईसा से पूर्व तीसरी अथवा चौथी शताब्दी में केवल पंजाब के कुछ भागों में ही प्रचलित थी। शहाबाजगढ़ी और मन्सोरा के दरवाजों पर अशोक के लेख इसी लिपि में उत्कीर्ण हुए हैं। इसके अतिरिक्त शक, क्षत्रप, पार्थिअन् और कुषाणवंशी राजाओं के समय के कितने बौद्ध लेखों तथा बाक्ट्रिअन, ग्रीक, शक, क्षत्रप आदि राजवंशों के कितने ही सिक्कों में यही लिपि उत्कीर्ण हुई मिलती है । इसलिए भारतीय पुरातत्त्वज्ञों को इस लिपि के ज्ञान की विशेष आवश्यकता थी। कर्नल जेम्स टॉड ने वाक्ट्रिअन्, ग्रीक, शक पार्थिअन् और कुषाणवंशी राजाओं के सिक्कों का एक बड़ा संग्रह किया था। इन सिक्कों पर एक ओर ग्रीक और दूसरी ओर खरोष्ठी अक्षर लिखे हुए थे । सन् 1830 ई० में जनरल वेंटुराँ ने मानिकिाल स्तूप को खुदवाया तो उसमें से खरोष्ठी लिपि के कितने ही सिक्के और दो लेख प्राप्त हुए । इसके अतिरिक्त अलेक्जेण्डर, बन्स आदि प्राचीन शोधकों ने भी ऐसे अनेक सिक्के इकट्ठ किये थे जिनमें एक अोर के ग्रीक अक्षर तो पढ़े जा सकते थे परन्तु दूसरी ओर के खरोष्ठी अक्षरों के पढ़े जाने का कोई साधन नहीं था। इन अक्षरों के विषय में भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ होने लगीं। सन् 1824 ई० में कर्नल टॉड ने कफिसेस् के सिक्के पर खुदे इन अक्षरों को ससेनिनन्' अक्षर बतलाया। 1833 ई० में प्रपोलोडोट्स के सिक्के पर इन्हीं अक्षरों को प्रिंसेप ने 'पहलवी' अक्षर माना। इसी प्रकार एक दूसरे सिक्के की इसी लिपि तथा मामिकियाँल के लेख की लिपि को उन्होंने ब्राह्मी लिपि मान सिया और इसकी प्राकृति कुछ देदी होने के कारण अनुमान लगाया कि जिस प्रकार छपी हुई और बही में लिखी हुई गुजराती लिपि में अन्तर है उसी प्रकार प्रशोक के दिल्ली आदि के स्तम्भों वाली और इस लिपि में अन्तर है । परन्तु बाद में स्वयं प्रिंसेप ही इस अनुमान को अनुचित मानने लगे। सन् 1834 ई० में केप्टन कोर्ट को एक स्तूप में से इसी लिपि का एक लेख मिला जिसको देखकर प्रिंसेप ने फिर इन अक्षरों के विषय में 'पहलवी' होने की कल्पना की। परन्तु उसी वर्ष में मिस्टर मेसन नामक शोधकर्ता विद्वान ने अनेक ऐसे सिक्के प्राप्त किये जिन पर खरोष्ठी और ग्रीक दोनों लिपियों में राजाओं के नाम अंकित थे। मेसन साहब ने ही सबसे पहले मिनेंकों, प्रोपोलडोटो, अरमाइलो, वासिलियो और सोरों आदि नामों को पढ़ा था, परन्तु यह उनकी कल्पना मात्र थी। उन्होंने इन नामों को प्रिंसेप साहब के पास भेजा । इस कल्पना को सत्य का रूप देने का यश प्रिंसेप के ही भाग्य में लिखा था । उन्होंने मेसन साहब के संकेतों के अनुसार सिक्कों को बाँचना प्रारम्भ किया तो उनमें से बारह राजानों और सात पदवियों के नाम पढ़ निकाले । - इस प्रकार खरोष्ठी लिपि के बहुत-से अक्षरों का बोध हुआ और साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि यह लिपि दाहिनी ओर से बाँयी ओर पढ़ी जाती है। इससे यह भी निश्चय हुमा कि यह लिपि समेटिक वर्ग की है, परन्तु इसके साथ ही इसकी भाषा को, जो वास्तव For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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