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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org "लिपि-समस्या/185 उस सम्पूर्ण लेख को पढ़कर 1837 ई० में भिटारी के स्तम्भ वाला स्कन्दगुप्त का लेख भी पढ़ लिया। 1835 ई० में डब्ल्यू. एम. वाँथ ने वलभी के कितने ही दानपत्रों को पढ़ा । 1837-38 ई० में जेम्स प्रिंसेप ने दिल्ली, कुमाऊँ और ऐरन के स्तम्भां एवं अमरावती के स्तूपों तथा गिरनार के दरवाजों पर खुदे हुए गुप्तलिपि के बहुत-से लेखों को पढ़ा। साँची-स्तूप के चन्द्रगुप्त वाले जिस महत्त्वपूर्ण लेख के सम्बन्ध में प्रिंसेप ने 1834 ई० में लिखा था कि “पुरातत्त्व के अभ्यासियों को अभी तक भी इस बात का पता नहीं चला है कि माँची के शिलालेखों में क्या लिखा है ।" उसी विशिष्ट लेख को यथार्थ अनुवाद सहित 1837 ई० में प्रयुक्त करने में वही प्रिंसेप साहब सम्पूर्णतः सफल हुए । अब, बहुत-सी लिपियों की आदि जननी ब्राह्मी-लिपि की बारी आयी । गुप्तलिपि से भी अधिक प्राचीन होने के कारण इस लिपि को एकदम समझ लेना कठिन था। इस लिपि के दर्शन तो शोधकर्ताओं को 1795 ई० में ही हो गये थे। उसी वर्ष सर चार्ल्स मैलेट ने एलोरा की गुफाओं के कितने ही ब्राह्मी लेखों की नकलें सर विलियम जेम्स के पास भेजीं। उन्होंने इन नकलों को मेजर विल्फोर्ड के पास, जो उस समय काशी में थे, इसलिए भेजा कि वे इनको अपनी तरफ से किसी पण्डित द्वारा पढ़वावें। पहले तो उनको पढ़ने वाला कोई पण्डित नहीं मिला, परन्तु फिर एक चालाक ब्राह्मण ने कितनी ही प्राचीन लिपियों की एक कृत्रिम पुस्तक बेचारे जिज्ञासु मेजर साहब को दिखलाई और उन्हीं के आधार पर उन लेखों को गलत-सलत पढ़ कर खूब दक्षिणा प्राप्त की। विल्फोर्ड साहब ने उस ब्राह्मण द्वारा कल्पित रीति से पढ़े हुए उन लेखों पर पूर्ण विश्वास किया और उसके समझाने के अनुसार ही उनका अंग्रेजी में भाषान्तर करके सर जेम्स के पास भेज दिया । इस सम्बन्ध में मेजर विल्फोर्ड ने सर जेम्स को जो पत्र भेजा उसमें बहुत उत्सुकतापूर्वक लिखा है कि "इस पत्र के साथ कुछ लेखों की नकलें उनके सारांश सहित भेज रहा हूँ। पहले तो मैंने इन लेखों के पढ़े जाने की प्राशा बिल्कुल ही छोड़ दी थी, क्योंकि हिन्दुस्तान के इस भाग में (बनारस की तरफ) पुराने लेख नहीं लिखते हैं, इसलिए उनके पढ़ने की कला में बुद्धि का प्रयोग करने अथवा उनकी शोध-खोज करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। यह सब कुछ होते हुए भी और मेरे बहुत-से प्रयत्न निष्फल चले जाने पर भी अन्त में सौभाग्य से मुझे एक वृद्ध गुरु मिल गया जिसने इन लेखों को पढ़ने की कुञ्जी बंताई और प्राचीनकाल में भारत के विभिन्न भागों में जो लिपियाँ प्रचलित थीं उनके विषय में । एक संस्कृत पुस्तक मेरे पास लाया। निस्सन्देह, यह एक सौभाग्य सूचक शोध हुई है जो हमारे लिए भविष्य में बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।" मेजर विल्फोर्ड की इस 'शोध' के विषय में बहुत वर्षों तक किसी को कोई सन्देह नहीं हुया क्योंकि सन् 1820 ई० में खंडगिरि के द्वार पर इसी लिपि में लिखे हुए लेख के सम्बन्ध में स्टलिंग ने लिखा है कि "मेजर विल्फोर्ड ने प्राचीन लेखों को पढ़ने की कुञ्जी एक विद्वान ब्राह्मण से प्राप्त की और उनकी विद्वत्ता एवं बुद्धि से इलोरा व शालेसेट के इसी लिपि में लिखे हुए लेखों के कुछ भाग, पढ़े गये । इसके पश्चात् दिल्ली तथा अन्य स्थानों के ऐसे ही लेखों को पढ़ने में उस कुजी का कोई उपयोग नहीं हुआ, यह शोचनीय है।" सन् 1833 ई० में मि० प्रिन्सेप ने सही कुञ्जी निकाली। इससे लगभग एक वर्ष For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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