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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्याय 5 लिपि-समस्या महत्त्व : पाण्डुलिपि-विज्ञान में लिपि का बहुत महत्त्व है। लिपि के कारण ही कोई चिह्नित वस्तु हस्तलेख या पाण्डुलिपि कहलाती है । 'लिपि' किसी भाषा को चिह्नों में बांधकर दृश्य कोर पाठ्य बना देती है। इससे भाषा का वह रूप सुरक्षित होकर सहस्राब्दियों बाद तक पहंचता है जो उस दिन था जिस दिन वह लिपिबद्ध किया गया । विश्व में कितनी ही भाषाएं हैं, और कितनी ही लिपियां हैं। पाण्डुलिपि-विज्ञान के अध्येता के लिए और पाण्डुलिपि-विज्ञान-विद् बनने वालों के समक्ष कितनी ही लिपियों में लिखी गयी पाण्डुलिपियाँ प्रस्तुत हो सकती हैं । पुस्तक की अन्तरंग जानकारी के लिए उन पुस्तकों की लिपियों का कुछ ज्ञान अपेक्षित है । वस्तुतः विशिष्ट लिपि का ज्ञान उतना आवश्यक नहीं जितना उस वैज्ञानिक विधि का ज्ञान अपेक्षित है जिससे किसी भी लिपि की प्रकृति और प्रवृत्ति का पता चलता है । इस ज्ञान से हम विशिष्ट लिपि की प्रकृति और प्रवृत्ति जानकर अध्येता के लिए अपेक्षित पाण्डुलिपि का अन्तरंग परिचय दे सकते हैं । अतः लिपि का महत्त्व है, किसी विशेष यूग या काल के विशेष दिन की भाषा के रूप को पाठ्य बनाने के लिए सुरक्षित करने की दृष्टि से एवं इसलिए भी कि इसी के माध्यम से पाण्डुलिपि-विज्ञानार्थी वैज्ञानिक विधि से पुस्तक के अन्तरंग का अपेक्षित परिचय निकाल सकता है, अतः आज भी लिपि का महत्त्व निर्विवाद है, वह चाहे पुरानी से पुरानी हो या अर्वाचीन । लिपियाँ : विश्व में कितनी ही भाषाएँ हैं और कितनी ही लिपियाँ हैं । भाषा का जन्म लिपि से पहले होता है, लिपि का जन्म बहुत बाद में होता है। क्योंकि लिपि का सम्बन्ध चिह्नों से है, चिह्न 'अक्षर' या 'अल्फाबेट' कहे जाते हैं। ये भाषा की किसी ध्वनि के चिह्न होते हैं । अतः लिपि के जन्म से पूर्व भाषा-भाषियों को भाषा के विश्लेषण में यह योग्यता प्राप्त हो जानी चाहिये कि वे जान सके कि भाषा में ऐसी कुल ध्वनियां कितनी हैं जिनसे भाषा के सभी शब्दों का निर्माण हो सकता है । भाषा का जन्म वाक्य रूप में होता है । विश्लेषक बुद्धि का विकास होने पर भाषा को अलग-अलग अवयवों में बाँटा जाता है । उन अवयवों में फिर शब्दों को पहचाना जाता है। शब्दों को पहचान सकने की क्षमता विश्लेषक-बुद्धि के और अधिक विकसित होने का परिणाम होती है। 'शब्द' अर्थ से जुड़े रहकर ही भाषा का अवयव बनते हैं । संस्कृति और सभ्यता के विकास से 'भाषा' नये अर्थ, नयी शक्ति और क्षमता तथा नया रूपांतरण भी प्राप्त करती हैं । संशोधन, परिवर्द्धन, आगम, लोप और विपर्यय की सहज प्रक्रियाओं से भाषा दिन-ब-दिन कुछ से कुछ होती चलती है । इस प्रक्रिया में उसके शब्दों में भी परिवर्तन पाते हैं, तद्नुकूल अर्थ-विकार भी प्रस्तुत होते हैं । अब 'शब्द' का महत्त्व हो उठता है। शब्द की इकाइयों से उनके 'ध्वनि-तत्त्व' तक सहज ही पहुँचा जा सकता है । यह आगे का विकास है। ध्वनियों के विश्लेषण से किसी भाषा की आधारभूत ध्वनियों का ज्ञान मिल सकता है । इस चरण पर पाकर ही 'ध्वनि' (श्रव्य) को दृश्य बनाने के लिए चिह्न की परिकल्पना की जा सकती है। भाषा बोलना आने पर अपने समस्त अभिप्राय को व्यक्ति एक ऐसे वाक्य में बोलता For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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