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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपियों के प्रकार 155 अपने ग्रन्य निरीक्षण विवरण (पृ० 30) में लिखा है कि उन्होंने जैसलमेर के वृहद्-ग्रन्थभण्डार में जैन सूत्रों की सूची देखी जो रेशम की पट्टी पर लिखी थी। काष्ठपट्टीय लिखने के लिए लकड़ी के फलकों के उपयोग का रिवाज भी बहुत पुराना है। कोई 40-45 वर्ष पूर्व सर्वत्र और कहीं-कहीं पर अब भी बालकों को सुलेख लिखाने के लिए लकड़ी की पाटी काम में लाई जाती है। यह पाटी लगभग डेढ़ फुट लम्बी और एक फुट चौड़ी होती है । इसके सिरे पर एक मुकुटाकार भाग काट दिया जाता है जिसमें छिद्र होता है । बालक इस छिद्र में डोरा पिरोकर लटका लेते हैं। इसकी सहायता से घर पर भी इसे खटी पर टाँग देते हैं : क्योंकि विद्या को पैरों में नहीं रखना चाहिये । इसी पाटी पर मुलतानी या खड़िया पोतते हैं । यह लेप इतना साफ और स्वच्छ करके लगाया जाता है कि पाटी के दोनों ओर की सतह समान रूप से स्वच्छ हो जाती है। पाटी पोतने और उसको मुखाने की कला में बालकों की चतुराई अाँकी जाती थी। चटशाला में बच्चे मामूहिक रूप से पाटी पोतने बैठते और फिर 'सूख-सख पाटी, विद्या प्रावै' की रट लगाते हुए पट्टी हवा में हिलाते थे । पाटी सूख जाने पर वे इसे अपने दोनों घुटनों पर रखकर नेजे या सरकंडे की कलम और काली स्याही से सन्दर अक्षर लिखने का अभ्यास करते थे । प्रारम्भ में गुरुजी कलम के उल्टे सिरे से बिना स्याही के उस पाटी पर अक्षरों के आकार (किटकिनां) बना देते थे और फिर बालक उस आकार पर स्याही फेरकर सुलेखन का अभ्यास करते थे। पाटी पर जो खड़िया या मुलतानी पोती जाती थी वह पाण्डु कहलाती थी और इसीलिए प्रारम्भिक मूल लेख को पाण्डुलिपि कहते हैं जो अब प्रारूप, मूल हस्तलेख मौर हस्तलिखित ग्रन्थ का वाचक शब्द बन गया है। पाटी लिखने से पहले बच्चों को 'खोरपाटा' देते थे । एक लकड़ी का आयताकार पाटा, जिसके छोटे-छोटे चार पाये होते थे या दोनों ओर नीचे की तरफ डाट होती थी, यह बालक के सामने बिछा दिया जाता था। इस पर लाल चूने या स्वच्छ भूरी मिट्टी बिछाकर इस तरह हाथ फेरा जाता कि उसकी सतह ममतल हो जाती थी। फिर लड़की की तीखी नोकदार कलम से उस सतह पर लिखना सिखाते थे । इस कलम को 'बरता' या 'बरतना' कहते थे । जब पाटा भर जाता तो लेख गुरुजी को जॅचवा कर फिर उस मिट्टी पर हाथ फेरा जाता और पुनः लेखन चालू हो जाता। आजकल जैसे स्कूलों में कक्षाएं होती हैं उसी प्रकार पहले पढ़ने वाले छात्रों की श्रेणी-विभाजन इस प्रकार होता था कि प्रारम्भ में 'खोरा-पाटा' की कक्षा फिर 'पाटी' कक्षा । दिन में विद्यार्थी कितनी पट्टियाँ लिख लेता था, इसके आधार पर भी उसकी वरिष्ठता कायम की जाती थी। इस प्रकार पाटी या फलक पर लिखने की परम्परा बहुत पुरानी है। बौद्धों की जातक-कथाओं में भी विद्यार्थियों द्वारा काष्ठ-फलकों पर लिखने का उल्लेख मिलता है। 1. इसका एक रूप ब्रज में यों मिलता हैसुख-सूख पटदी चन्दन गटटी, राजा आये महल चिनाये, महल गये टूट, पट्टी गई सूख । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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