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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपियों के प्रकार 139 पांडुलिपियों के प्रकार : लिप्यासन भेद से-लिप्यासन कितने ही प्रकार के मिलते हैं । वृक्षों की छाल, वृक्षों के पत्ते, धातुओं के पत्तर, चमड़े, कागज, कपड़ा आदि पर ग्रन्थ लिखे गये हैं । जिन वस्तुओं को ग्रन्थ-लेखन के लिए उपयोग में लाया जाता था, या लाया जा सकता है उन्हें 'लिप्यासन' (लिपि +-पासन) कहा जा सकता है । ताड़पत्र, कपड़ा, वागा आदि सभी लिप्यासन है : लिपि के ग्रासन । लिपि-आसन के भेद से पुस्तक के प्रकार स्थापित किये जा सकते हैं । क्योंकि ग्रन्थ का प्रथम भेद लिप्यासन के आधार पर ही किया जा सकता है, जैसे ताडपत्रीय ग्रन्थ, भोजपत्रीय ग्रन्थ आदि । ये ग्रन्थ प्रस्तर-शिलाओं पर भी लिखे जाते थे। ये वस्तुतः ग्रन्थ ही थे. अभिलेख-मात्र नहीं । इसमें सन्देह नहीं कि जिलाओं पर अभिलेख तो बहुत-से मिले है । पर चाहे बहुत ही कम संख्या में हों, ग्रन्थ 'भो गिलाओं पर खुदे मिल हैं। पाषागीय : प्रस्तर शिलानों पर ग्रन्थ . हम समझते हैं कि पत्थर को लेखन-आधार के रूप में इतिहास के प्रस्तर-माल से ही प्रयोग में लाया जाता रहा है। मनुष्य ने जब सर्वप्रथम अपने भावोंगो इंगित के अतिरिक्त अन्य प्रकार से व्यक्त करने का उपाय निकाला होगा, पत्थर से पत्थर पर चिह्न बना कर ही किया होगा । मूल रूप में यह प्रवृत्ति अव भी मनुष्यों में पाई जानी। बिना पढ़े मजदूर आदि अपना हिसाब जमीन पर या पत्थर के टुकड़ों पर पत्थर के ही ढोंके से आड़ी-सीधी लकीरें खींचकर लगा लेते हैं। अतः पत्थर-लेखन का आद्य आधार हो सकता है। बाद में तो पत्थर की शिलाओं को चिकनी बनाकर, स्तम्भाकार बनाकर, तथा उ हाशिया उभार पार सुन्दर अक्षरों को उत्कीर्ण करने की कला विकसित हुई है। प्रस्तर शिलानों पर किसी घटना की स्मृति, राजाज्ञा, प्रशस्ति आदि तो उन्हें चिरस्थायी बनाने के प्राशय से खोदे ही जाते थे परन्तु कतिपय काव्य एवं अन्य रचनाएं भी शिलोत्कीर्ण रूप में पाई गई हैं। कोई-कोई प्रशस्ति भी इतनी विस्तृत और बड़ी होती है कि उसे विद्वानों ने ऐतिहासिक काव्य की ही संज्ञा दी है। हनुमन्नाटक, (जिसको महानाटक भी कहते हैं) के टीकाकार बलभद्र ने लिखा है कि इसकी रचना वायुपुत्र हनुमान ने की और महर्षि वाल्मीकि को दिखाई। वाल्मीकि ने कहा कि उन्होंने तो इस कथा को रामावतार से पूर्व ही कविताबद्ध कर दिया था। तब हनुमान ने जिन शिलाओं पर अपनी रचना अंकित की थी उनको समुद्र-तल में रख दिया । बाद में धारा के राजा भोज को जब इसका पता चला तो उसने कुछ गोताखोरों को उन शिलानों को निकालने के लिए नियुक्त किया परन्तु वे इतनी भारी थीं कि उनको ऊपर लाना शक्य नहीं हुआ। तब यह उपाय काम में लाया गया कि गोताखोरों के सीने पर मधुमक्खियों का मल (अर्थात् शहद् निकालने के बाद बचा हुआ मोम) लेप दिया गया । वे सागरतल में जाकर निर्देशानुसार उन शिलाओं का आलिंगन करते। इस प्रकार शिलानों पर लिखित अंश की छाप उन पर उभर आती। बुद्धिमान राजा भोज द्वारा इस क्रम से उद्धार किये जाने पर काशीनाथ मिश्र ने इस नाटक को ग्रन्थित किया । उमी के पुत्र बलभद्र ने इसकी टीका बनायी। रचितमनुलपुत्रेणाथ वाल्मीकिनाब्यो निहितममृत बुद्धया प्राङ महानाटक यत । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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