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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाण्डुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न : क्षेत्रीय अनुसधान/125 Dayaldas (disciple of Jagannath) Nasiket vyakhyan (completed in 1677) VB 4, p. 390-451, NAR 2/2; 3/7; 5/5; DM 9, p. 447-469; 21, p. 329-357; 20, p. 453-481; 14, p. 131-165; 23, p. 362-388; VB 8, p. 331-400%; KT. 486%; SD : NPV I, p. 407. नकली पांडुलिपियाँ पांडुलिपि-विज्ञानार्थी को क्षेत्रीय अनुसंधान में जिस सबसे विकट समस्या का सामना करना पड़ता है वह नकली ग्रंथों की है। पांडुलिपियों के साथ यह नकली पांडुलिपियों की समस्या भी खड़ी होती है । तुलसीदास जी पर लिखे गये दो ऐसे ग्रथ मिले थे, जिनके लेखकों ने दावा किया था कि वे गोस्वामीजी के प्रिय शिष्य थे। एक ने संवत् एवं तिथि देकर उनके जीवन की विविध घटनाओं का उल्लेख किया था। इनसे कोई कोना अंधकारमय नहीं रह जायगा । किन्तु अन्तरंग परीक्षा से विदित हुआ कि उसमें सब कुछ कपोल-कल्पित है। पूरा का पूरा ग्रन्थ किसी कवि ने दूसरे के नाम से रच डाला था, अतः नकली था, जाली था। ऐसे ही अनेक उदाहरण मिलते हैं। स्व० डॉ० दीनदयाल गुप्त, भू०पू० अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय ने डी० लिट० की एक मौखिक परीक्षा के समय वाराणसी के एक ऐसे व्यक्ति का नाम बताया था जो जाली हस्तलिखित पुस्तकें तैयार करने में दक्ष था। मुझे आज उसका नाम स्मरण नहीं, किन्तु ऐसे व्यक्तियों का होना असम्भव नहीं। जहाँ पुरानी ऐतिहासिक वस्तुओं के क्रय-विक्रय के केन्द्र होते हैं वहाँ ऐसी जालसाजी के लिए बहुत क्षेत्र रहता है । अनेक प्रकार के प्रयत्न किये जाते हैं और नकल को असल बताकर व्यवसायी पूरी ठगाई करते हैं। ___ 19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में मध्य एशिया के 'खुत्तन' शहर में तो किसी ने हस्तलिपियों के निर्माण के लिए कारखाना ही बना डाला था। डॉ. भगवतीशरण उपाध्याय ने धर्मयुग, 8 मार्च, 1970 (पृष्ठ 23 एवं 27) के अंक में 'पुरातत्व में जालसाजी' शीर्षक निबन्ध में 'पारेल स्टाइन' के आधार पर रोचक सूचना दी है। उन्होंने बताया है कि 'खुत्तन और काशगर' से एक बार जाली हस्तलिपियों की खरीदफरोख्त का तांता बंधा और अंग्रेजी, रूसी तथा अनेक यूरोपीय संग्रहकर्ताओं को जाली हस्तलिपियाँ पर्याप्त मात्रा में बेची गयीं । यह इतनी दक्षतापूर्वक की गई जालसाजी थी कि “विद्वान् और अनभिज्ञ दोनों ही समान रूप से इस धोखे के शिकार हुए।" 'आदिर पारेल स्टाइन' ने इस जालसाजी का पूरी तरह भंडाफोड़ किया । इसलाम अखुन नाम के एक जालसाज ने तो प्राचीन पुस्तकों की खपत अधिक देख कर एक कारखाना ही खोल दिया था। आरेल स्टाइन महोदय के विवरण के आधार पर डॉ० भगवतशरण उपाध्याय ने इस जालसाज इस्लाम अखुन द्वारा जालसाजी करने की कथा यों दी है : "अब इसलाम अखुन द्वारा निर्मित 'प्राचीन पुस्तकों' की कथा सुनिये, अपनो पहली 'प्राचीन पुस्तक' इस प्रकार बनाई हुई उसने 1895 में मुंशी अहमद दीन को बेची। मुंशी अहमद दीन मैं कार्नी की अनुपस्थिति में काशगर के असिस्टेंट रेजिडेंट के दफ्तर की सम्भाल करने लगा था। वह पुस्तक हाथ से लिखी गई थी और कोशिश इस बात की की गयी थी For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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