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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पांडुलिपि-प्राप्ति और तत्सम्बन्धित प्रयत्न क्षेत्रीय अनुसंधान / 105 रचना का समय नहीं दिया है । ग्रन्थ पूर्ण है। लिपिकाल और लिपिकार संवत् 1833 वि. । फोलियो 9 से 15 तक । विवरण अन्त भक्तियुक्त अत्यन्त सुन्दर ब्रजभाषा के कवित्त सवैया इस ग्रन्थ में हैं। पद संख्या कुल 26 हैं । रचना पूर्ण है । उदाहरणार्थ www.kobatirth.org प्रारम्भ--- मध्य श्रन्त : इतनी विचारि चन्द सबन सौ नय चले जाएँ भला होई सोई करो निशि भोर ही । उदाहरणार्थ---'समय पच्चीसी' के कुछ पद प्रस्तुत हैं समय बिपरीति कहूं देखिये न प्रीति मिटि गई परतीति रीति जगन की न्यारी जू 1 स्वारथ मैं लगे परमारथ सौ भगे झूठे तन ही में पगे साची वस्तु न निहारी जु । मोह मैं भुलाने सदा दुख लपटानें ज्ञान ऊर में न आने भक्ति हिय में न धारी जू" । चंद हितकारी तौपे होत बलिहारी लाज तुमको हमारी कृपा करिये बिहारी नृ || जग दुख सागर में गोता खात जीव यह माया की पवन के झकोर मांझ परचों है । धारि शिर भार क्योहु हो नहि पार से करत विचार मन मेरो अरबरयो है टेरत तहा ते दीनबन्धु करुणा के सिन्धु तुम बिन दुख को को काप जात हय है । वह प्राण धर्यो, कृपा ही कों अनुसरयों प्यारे जोई तुम कर्यो सोई आनन्द सौ भय है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दैनि के समय मैं न होत हैं प्रभात कहुं भोर के समय मैं न होत कभू रात है । ठीक दुपहर मांझ होत नहिं संझ चन्द सांझ ही के मांझ कहो कैसे होत प्रात है । प्रात मध्य सांझ रात होत है समय ही मैं से हानि लाभ सुख दुख निजु गात है । सम की जो बात तेतौ सम ही मैं होतजात जानत बिबेकी विवेकी पछितात है । For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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