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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( x ) सूरसागर के संपादन और पाठालोचन के लिए एक लिए करना पड़ा था। इन पांडुलिपियों की खोज की थे । उनसे भी सहायता मैंने ली है। वृहद् सेमीनार का आयोजन भी मुझे ब्रज साहित्य मण्डल के सभी के परिणामस्वरूप मेरी रुचि पांडुलिपियों में बड़ी और दिशा में भी कुछ कार्य किया । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर इनसे मेरी पांडुलिपि - विज्ञान की पुस्तक लिखने की योग्यता सिद्ध नहीं होती । अतः यह मेरी अनधिकार चेष्टा ही मानी जायगी। हाँ, मुझे इस कार्य में प्रवृत्त होने का साहस इसी भावना से हुआ कि इससे एक प्रभाव की पूर्ति तो हो ही सकती है। इससे इस बात की सम्भावना भी बढ़ सकेगी कि आगे कोई यथार्थ अधिकारी इस पर और अधिक परिपक्व और प्रामाणिक ग्रन्थ प्रस्तुत कर सकेगा । जो भी हो, ग्राज तो यह पुस्तक आपको समर्पित है और इस मान्यता के साथ समर्पित है कि यह पांडुलिपि - विज्ञान की पुस्तक है । डॉ० हीरालाल माहेश्वरी एम०ए०, पी-एच०डी०, डी०लिट् ने मेरे आग्रह पर अपने अनुभव और अध्ययन के आधार पर कुछ उपयोगी टिप्पणियाँ हस्तलेखों पर तैयार करके दीं । इन्होंने शतशः हस्तलेखों का उपयोग अपने अनुसंधान में किया है । कठिन यात्राएँ करके कठिन व्यक्तियों से पांडुलिपियों को प्राप्त किया है और उनका अध्ययन किया है । इसी प्रकार श्री गोपाल नारायण बहुरा जी ने भी कुछ टिप्पणियां हमें दीं। ये बहुत वर्षों तक राजस्थान प्राच्य - विद्या-प्रतिष्ठान से सम्बन्धित रहे, वहाँ से सेवा-निवृत्त होने पर जयपुर के सिटी पैलेस के 'पौथीखाने' और संग्रहालय में हस्तलिखित ग्रन्थों के विभाग से सम्बन्धित हो गये, इस समय भी वहीं हैं । इनको हस्तलेखों का दीर्घकालीन अनुभव है । और सोने में सुगंध की बात यह है कि प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में इन्हें विद्वद्वर मुनि जिन विजय जी (अब स्वर्गीय) के साथ भी काम करने का अच्छा अवसर मिला । हमारे ग्राग्रह पर इन्होंने भी हमें इस विषय पर कुछ टिप्पणियाँ लिखकर दीं। इनकी इस सामग्री का यथासम्भव हमने पूरा उपयोग किया है और उसे इन विद्वानों के नाम से यथास्थान इस पुस्तक में समायोजित किया है । इनके इस सहयोग लिए मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ । जहाँ तक मुझे ज्ञात है, वहाँ तक मैं समझता हूँ कि "पांडुलिपि - विज्ञान" पर यह पहली ही पुस्तक है। गुजराती की मुनि पुण्यविजय की लिखी पुस्तक "भारतीय जैन श्रमरण संस्कृति अने लेखन कला" में पांडुलिपि - विषयक कुछ विषयों पर अच्छी ज्ञातव्य सामग्री बहुत ही श्रम, अध्यवसाय और सूझ-बूझ साथ संजोयी गयी है, पर इसमें दृष्टि सांस्कृतिक चित्र उपस्थित करने की रही है । उनकी इस पुस्तक को जैन लेखन कला और संस्कृति विषय का लघु विश्वकोष माना जा सकत है । इससे भी हमें बहुत-सी उपयोगी ज्ञान-सामग्री मिली है। मुनि पुण्यविजय जी भी प्रसिद्ध पांडुलिपि शोध- कर्त्ता हैं और इस विषय के प्रामाणिक विद्वान हैं । उनके चरणों में मैं अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ । किन्तु इस क्षेत्र में सबसे पहले जिस महामनीषी का नाम लिया जाना चाहिए वह हैं। "भारतीय प्राचीन लिपि माला" के यशस्वी लेखक महामहोपाध्याय गौरीशंकर हीराचंद ओझा जी हिन्दी के अनन्य सेवक और हिन्दी प्रती थे । “भारतीय प्राचीन लिपि माला " जैसी अद्वितीय कृति उन्होंने दबावों और प्रग्रहों को चिन्ता न करके अपने व्रत के अनुसार हिन्दी में ही लिखी, और भारतीय विद्वानों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनका यह ग्रन्थ तो पांडुलिपि - विज्ञान का मूलतः श्राधार ग्रन्थ ही है । मैंने ब्राह्मी लिपि का पहला पाठ For Private and Personal Use Only
SR No.020536
Book TitlePandulipi Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyendra
PublisherRajasthan Hindi Granth Academy
Publication Year1989
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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