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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तदा वृषभसेना च प्राप्य राजीपदं महत् । दिव्यान् भोगान् प्रभुजाना पूर्वपुण्यप्रसादतः । पूजयंती जगतपूज्यान जिनान्स्वर्गापवर्गदान्। दिव्यैरष्टमहाद्रव्यैः स्नपनादिभिरुज्वलैः । औषधदानमें प्रसिद्ध वृषभसेनाने पूर्वपुण्यप्रसादसे महारानीपदको प्राप्त किया। वहांपर वह स्वर्ग और मोक्षके लिए कारणभूत जिनपूजा व अभिषेक उत्तम द्रव्योंसे करती थी। जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण । इत्युक्तो नौदयद्वेगात्सारथी रथमाप सः। जिनवेश्म तमास्थाप्य तौ प्रविष्टौ प्रदक्षिणौ। क्षीरंक्षुरसधारॊधै कृतदध्युदकादीभि । अभिषिच्य जिनेंद्रा_मर्चितां नृमुरासुरैः ।। अर्थात् गंधर्वसेनाके वचनको सुनकर सारथी रथको जिन. मंदिरके पास ले गया,गंधर्वसेनाने जिनमंदिरको तीन प्रदक्षिणा देकर जिनेंद्र भगवतका पंचामृतोंसे अभिषेक किया। इसी प्रकार पद्मपुराण, महापुराण, गौतमचरित्र, षट्कर्मोपदेशरत्नमाला आराधना कथाकोष, व्रतकथाकोष, षट्पाहुड आदि अनेक ग्रंथों में इस विषयके लिए प्रमाण है। अतः इस विषयपर दुराग्रहको छोडकर स्त्रियोंको आगमानुमोदित जिनाभिषेक व पात्रदानसे वंचित नहीं करना चाहिए। For Private and Personal Use Only
SR No.020534
Book TitlePanchamrutabhishek Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZaveri Chandmal Jodhkaran Gadiya
PublisherZaveri Chandmal Jodhkaran Gadiya
Publication Year1958
Total Pages42
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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