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आविट्ठ 241
आविभाव सारत्थ. टी. 3.357; - यं सप्त. वि., ए. व. - ... आविद्धपक्खपासकन्ति कणिकमण्डलस्स समन्ता आविञ्छनरज्जुयं कुञ्चिकमुद्दिकं बन्धित्वा, दी. नि. अट्ठ. ठपितपक्खपासक, वि. वि. टी. 2.220; द्रष्ट. 2.183; - रज्जुट्ठान नपुं., खींचने वाली रस्सी का स्थान पक्खपासक(आगे). - ने सप्त. वि., ए. व. - आविञ्छनरज्जडाने आरक्खं आविभवति आवि + Vभू का वर्त, प्र. पु., ए. व. [आविर्भवति], गहेत्वा अट्टासि, ध. प. अट्ठ. 1.328; - रस त्रि., खींचने आंखों के सामने आ जाता है, सुस्पष्ट हो जाता है, प्रकट अथवा घसीट कर ले जाने का काम करने वाला - सं हो जाता है - अविपरिणामधम्मस्स पन निरोधस्स दस्सनेनस्स नपुं.. प्र. वि., ए. व. - तत्थ... चक्खु रूपेसु आविञ्छनरसं विपरिणामट्टो आविभवतीति वत्तब्बमेवेत्थ नत्थि, विसुद्धि. ... सोतं सद्देसु आविञ्छनरसं... घानं गन्धेसु आविञ्छनरसं 2.331; दुक्खदस्सनेन निदानट्ठो आविभवति, तदे.; ---न्ति ..., जिव्हा, रसेसु आविञ्छनरसा .... विसुद्धि. 2.71; - सो ब. व. - सच्चन्तरदस्सनवसेन च आविभवन्ति, विसुद्धि. पु., प्र. वि., ए. व. - कायो फोटेब्बेसु आविञ्छनरसो, तदे.; महाटी. 2.475; लक्खणादीसु आतेसु धम्मा आविभवन्ति रूपेसु पुग्गलस्स, विआणस्स वा आविञ्छनरसं विसुद्धि. हि, अभि. अव. 632; - विस्सति भवि०, प्र. पु., ए. व. - महाटी. 2.85; - क नपुं., देवराज शक्र की वह सदा घूमते मुत्ते पन थुल्लच्चयम्पि पाराजिकम्पि होति, तं परतो रहने वाली रस्सी जिसके द्वारा वे लोकों की धुरी तथा चक्र आविभविस्सति, पारा. अट्ठ. 1.265; सत्तेसु महाकरुणाय का संधारण करते हैं - के सप्त. वि., ए. व. - सक्को समोक्कमनाकारो, सो परतो आविभविस्सति, उदा. अट्ठ. देवराजा आविञ्छनके आरक्खं विस्सज्जेसि, ध. प. अट्ठ. 106; तस्स उप्पत्ति परतो आविभविस्सति, थेरगा. अट्ठ. 1.329; सक्को देवराजा आविञ्छनके आरक्खं गण्हि, ध. प. 1.863; पठमं झानन्ति इदं परतो आविभविस्सति, विसुद्धि. अट्ठ. 1.329.
1.140; - विस्सन्ति ब. व. - अतिलीनोति आदीनि परतो आविट्ठ त्रि., आ + विस का भू. क. कृ. [आविष्ट], शा. आविभविस्सन्ति, स. नि. अट्ठ. 3.284. अ., प्रविष्ट, वह, जिसके भीतर कोई पूर्ण रूप से समा आविभवन नपूं, आवि + भू से व्यु., क्रि. ना., सुस्पष्ट गया है, ला. अ., पूर्णरूप से ग्रस्त अथवा अभिभूत, भूत- अथवा सुप्रकाशित हो जाना, आविर्भाव, आंखों के सामने आ प्रेतादि से ग्रस्त अथवा वशीकृत -ट्ठा स्त्री., प्र. वि., ए. जाना - नं प्र. वि., ए. व. - आविभावो ति, आविभवनं व. - वारुणीवाति यक्खाविट्ठा इक्खणिका विय .... जा. आविभावो, सद्द. 1.71; आविभवनन्ति पच्चक्खभावो, सद्द. अट्ठ. 7.371.
1.86. आविद्ध त्रि., आ + विध का भू. क. कृ. [आविद्ध], शा. आविभाव पु., आवि + भू से व्यु. [आविर्भाव], 1. अ., अन्दर तक बिधा हुआ या छेदा हुआ, मुड़ा हुआ, टेढ़ा, अत्यधिक सुस्पष्ट होना, अत्यधिक सुस्पष्ट बनाया जाना, ला. अ., 1. चक्राकार गति को प्राप्त कराया गया, घुमाया खुलासा करना, व्याख्यान, प्रकाशभाव - वो प्र. वि., ए. जा रहा, चक्कर कटवाया जा रहा, गोल चक्कर में घूम व.- तं दिवसं कतकिरियाय आविभावो विय पब्बेनिवासाय रहा, चक्कर काट रहा-द्धं नपुं, प्र. वि., ए.व. - चक्कं ...... दी. नि. अट्ठ. 1.181; - तो प. वि., ए. व. - ते सिरसि माविद्धन तं जीवं पमोक्खसी ति, जा. अट्ठ. आविभावतोति पकासभावतो, विसुद्धि, महाटी. 2.475; 4.6; सिरसिमाविद्धन्ति यं पन ते इदं चक्कं सिरस्मि अञसच्चदस्सनवसेन आविभावतो, विसुद्धि. 2.330; - आविद्धं कुम्भकारचक्कमिव भमति, तदे. सकिं आविद्धमेव वत्थं क्रि. वि., सुस्पष्ट करने के लिए - "तस्सायेव याव मज्झन्हिकातिक्कमा भमियेव, जा. अट्ठ. 5.281; ला. पटिपदाय आविभावत्थं धम्म देसेमी ति, दी. नि. अट्ठ. अ., 2. अभिभूत, पीड़ित - द्धो पु., प्र. वि., ए. व. - 1.258; तस्स (फरुसा वाचा) आविभावत्थमिदं वत्थु, म. नि. व्यसनोपदवाविद्धो, विष्फन्दति विधातवा, ना. रू. प. 1352; अट्ठ. 1(1),208; स. नि. अठ्ठ. 2.130; तेसं आविभावत्थं, म. ला. अ. 3. फेंका गया, प्रक्षिप्त, हिला दिया गया, नि. अट्ठ. (उप.प.) 3.77; इमस्स पनत्थस्स आविभावत्थं प्रकम्पित - नुण्णो नुत्तात्तखित्ता चेरिताविद्धा, अभि. प. इमस्मिं ठाने सुमेधकथा कथेतब्बा, जा. अट्ट. 1.3-4; तस्स 744; - पक्खपासक त्रि., ब. स., वह, जिसके चारों ओर आविभावत्थमिदं वत्थु, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(1)208; - पक्खपासक विन्यस्त कर दिए गए हों-निल्लेखजन्ताघरं वानुरूपं क्रि. वि., जिस रूप में सुस्पष्ट अथवा अच्छी नाम आविद्धपक्खपासकं वुच्चति, चूळव. अट्ठ. 52; तरह ज्ञात हुआ है उसी की अनुरूपता में - आविभावानुरूप
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