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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब्बुळ्ह/अब्बूळ्ह 449 अब्बोहार भिक्खुसङ्घो अब्बुदजातो, अपरिसुद्धा पुग्गला उपोसथं स. नि. अट्ठ. 2.72; - ण्णा स्त्री., प्र. वि., ए. व. - पञ्जा आगच्छन्ति, उदा. अट्ठ. 243. किच्चकारी होति होति अचला असिथिला अब्बोकिण्णा अब्बुळ्ह / अब्बूळ्ह त्रि., अ(आ) + Vब्रह/ Vब्रूह का भू. क. अहिरिकेन, सु. नि. अट्ठ. 1.116; - ण्णानि नपुं.. प्र. वि., कृ., वह, जिसे बाहर खींचकर निकाला गया है, निराकृत, ब. व. - भिक्खुनो पञ्च जातिसतानि अब्बोकिण्णानि हटाया हुआ, अपनीत - ळ्हं नपुं.. प्र. वि., ए. व. - ... ब्राह्मणकुले पच्चाजातानि, उदा. 100; अब्बोकिण्णानीति विचिकिच्छाकथंकथासल्लं, तञ्च भगवता अब्बुळ्हन्ति, दी. खत्तियादिजातिअन्तरेहि अवोमिस्सानि अनन्तरितानि, उदा. नि. 2.209; अब्बूळ्हं अघगतं विजितं, एकञ्चे ओस्सजेय्य अट्ठ. 156; - ण्णो पु.. प्र. वि., ए. व. - ... सुखो च कलीव सिया, थेरगा. 321; - ळ्हे नपुं., सप्त. वि., ए. व. विहारोति एत्थ पन नास्स सेचनन्ति असेचनको अनासित्तको - एतस्मिम्हि अब्बूळ्हे सल्ले अब्बूळ्हसल्लो ... निट्ठापेसि. अब्बोकिण्णो पाटेक्को .... पारा. अट्ठ. 2.9; 2. अ., क्रि. वि., सु. नि. अट्ठ. 2.165; - त्त नपुं., भाव., बाहर निकाल दिया निरन्तर रूप में, लगातार रूप में, सतत रूप में - जाना, हटा दिया जाना - त्ता प. वि., ए. व. - ... अनिच्चसंवेदी सततं समितं अब्बोकिण्णं चेतसा अधिमुच्चमानो अब्बूळ्हत्ता अब्बूळ्हसल्लो सतिवेपुल्लप्पत्तिया अप्पमत्तो चरं, पाय परियोगाहमानो, अ. नि. 2(2).164; अब्बोकिण्णन्ति सु. नि. अट्ठ. 2.213; - सल्ल त्रि., ब. स. [आवृढशल्य], निरन्तरं अञ्जन चेतसा असंमिस्सं अ. नि. अट्ठ. 3.151. वह, जिसके अन्दर से चुभने वाला कांटा या अकुशल अब्बोच्छिन्न/अब्मोच्छिन्न 1. त्रि., वि + अव + छिद के मनोभाव बाहर निकाल दिया गया है - ल्लो पु., प्र. वि., भू. क. कृ. बोच्छिन्न का निषे. [अव्यवच्छिन्न], बीच में ए. व. - अब्बुळ्हसल्लो असितो, सन्तिं पप्पुय्य चेतसो, सु. किसी भी व्यवधान से रहित, सतत-रूप में प्रवर्तित - न्नं नि. 598; एतस्मिहि अब्बूळ्हे सल्ले अब्बूळ्हसल्लो ... नपुं.. प्र. वि., ए. व. - पुरिसस्स च विआणसोतं पजानाति, निद्वापेसि, सु. नि. अट्ठ. 2.165; सोहं अब्बूळ्हसल्लोस्मि, उभयतो अब्बोच्छिन्नं इध लोके अप्पतिद्वितञ्च परलोके वीतसोको अनाविलो, जा. अट्ठ. 3.136; -- सोकसल्ल त्रि, अप्पतिद्वितञ्च, दी. नि. 3.78; दरसनं अविजहित्वा गमनं ब. स. [आवृढशोकशल्य], वह, जिसका शोकरूपी चुभने अब्बोच्छिन्नं कत्वा पच्छतो पच्छतो इरियापथानुबन्धनेन वाला कांटा बाहर निकाल दिया गया है - ल्लं पु., द्वि. वि., अनुबन्धि, म. नि. अट्ठ. (म.प.) 2.94; - न्नो पु., प्र. वि., ए. व. - असोकन्ति निस्सोकं अब्बूळ्हसोकसल्लं, खु. पा. ए. व. - अज्जापि तु अब्बोच्छिन्नो, पुब्बाचरियनिच्छयो, खु. अट्ठ. 123. पा. अट्ठ. 2; - न्नाय स्त्री., तृ. वि., ए. व. - अब्बोच्छिन्नाय अबूळ्हेसिक त्रि., ब. स. [आवृढेसीक], वह, जिसका सन्ततिया न सक्का तानि कम्मानि दस्सेतुं .... मि. प. इच्छारूपी स्तम्भ या खम्भा नष्ट कर दिया गया है, वह, 78; 2. नपुं.. क्रि. वि., निरन्तर रूप में, अबाधित रूप में - जिसके मन में गहराई तक प्रविष्ट तृष्णा-रूपी वाण को अब्बोच्छिन्नं वत्तमाना, संसारोति पवुच्चती ति, सु. नि. अट्ठ. खींचकर बाहर निकाल दिया गया है - को पु., प्र. वि., ए. 2.136; - निरन्तरविरिय नपु., कर्म. स. व. - कथञ्च, भिक्खवे, भिक्खु अब्बूळ्हेसिको होति?, म.. [अव्यवच्छिन्ननिरन्तरवीर्य], बिना रुकावट वाला वीर्य, नि. 1.194; तण्हाति वट्टमूलिका तण्हा अयहि गम्भीरानुगतढेन लगातार सक्रिय वीर्य या पौरुष, अप्रतिहत पौरुष - येन त. एसिकाति वुच्चति-तेनेस तस्सा अब्बूळ्हत्ता लुञ्चित्वा छड्डितत्ता वि., ए. व. - धितिया दळहाय चाति दळ्हाय धितिया च, अब्बूळ्हेसिकोति वुत्तो, म. नि. अट्ठ. (मू.प.) 1(2).21. थिरेन अब्बोच्छिन्ननिरन्तरवीरियेन चाति अत्थो, जा. अट्ट, 1. अब्बेति/अब्बति ।अब्ब का वर्त., प्र. पु., ए. व., उपभोग 449; अब्बोच्छिन्नवीरियेन धितिमा, भूरिसमाय विपुलाय पाय करता है, अनुभव करता है - न्ति ब. व. - गन्धं अब्बन्ति मतिमा, जा. अट्ठ. 7.180. परिभुञ्जन्तीति गन्धब्बा, लीन. (दी.नि.टी.) 2.85. अब्बोहार त्रि., ब. स. [अव्यवहार], व्यवहार में किसी भी अब्बोकिण्ण 1. त्रि., वोकिण्ण का निषे. [अव्यवकीर्ण], नहीं __ काम में न आने वाला, निरर्थक, अनुपयोगी - रो पु., प्र. छितराया हुआ, चारों ओर नहीं बिखरा हुआ, व्यवधान-रहित, वि., ए. व. - अब्बोहारोव सो अन्तो, पूवादीसुपि कण्णक बाधामुक्त, अमिश्रित, लगातार चलने वाला - ण्णं नपुं. प्र. विन. वि. 1019; कमल्लिकासु दिन्नासु अब्बाहारोति वट्टति, वि., ए. व. - इध, पुण्ण, एकच्चो कुक्कुरवतं भावेति विन. वि. 1521; - नय पु., [अव्यवहारनय], व्यावहारिक परिपुण्णं अब्बोकिण्णं म. नि. 2.57; अब्बोकिण्णन्ति निरन्तरं तौर पर अनुपयोगी या निरर्थक पद्धति - यो प्र. वि., ए. For Private and Personal Use Only
SR No.020528
Book TitlePali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Panth and Others
PublisherNav Nalanda Mahavihar
Publication Year2007
Total Pages761
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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