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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंस अ' नागरी वर्णमाला में प्रयुक्त प्रथम स्वर-वर्ण, उच्चारण की सुविधा हेतु समस्त व्यञ्जनों में अनिवार्य रूप में समाहित ध्वनि, व्याकरण ग्रन्थों में 'अ' तथा 'आ' (अवर्ण) के सङ्केतनहेतु अन्त में 'कार' प्रत्यय जोड़ कर 'अकार' के रूप में भी प्रयुक्त तथा व्याकरण ग्रन्थों में ही अवण्ण' (अवणी रूप में भी प्राप्त अ. क. पालि-शब्दावली में संस्कृत भाषा के उप. आङ् (आ) का संयुक्त-व्यञ्जनों से पूर्व इस्वीकृत रूपान्तरण - अक्कोसति [आक्रोशते], अक्खाति [आचक्षते]; ख. असंयुक्त अन्तःस्थों (य, र, ल, द) तथा सानुनासिक वर्गीय व्यञ्जन-ध्वनियों (ङ्, ज, ण, न, म्) से पूर्व संस्कृत-भाषा के उप. आङ् (आ) का हुस्वीकृत स्था. - अमज्जप [आमद्यप], अत्यधिक मद्यपायी - अमज्जपाति एत्थ अ-कारो निपातमत्तं, जा. अट्ठ. 7.225; - अपस्सतो आ + दिस, वर्त. कृ. [आपश्यतः], भलीभांति देखते हुए - अपस्सतोति अ-कारो निपातमत्तो, जा. अट्ठ. 7.324. अ. क. अद्य., अनद्य. एवं काला. नामक आख्यात-प्रयोगों में धातु से पूर्व यादृच्छिक रूप से पूर्वागम-रूप में प्रयुक्त; (संस्कृत-प्रयोगों में इन्हीं स्थलों पर यह पूर्वागम अनिवार्य है जब कि पालि-गद्य में इसका प्रयोग यादृच्छिक है) - अगमा खो त्वं, महाराज, यथापेमन्ति ..., दी. नि. 1.45; अहुदेव भयं, अहु छम्भितत्तं अहु लोमहंसो, दी. नि. 1.44; एतदवोच, दी. नि. 1.47; ख. कतिपय सर्वनामों से निष्पन्न शब्दरूपों एवं अव्ययों के मूलाधार के रूप में 'अ' रूप में प्रयुक्त, परन्तु अर्थ-विशेष का द्योतक नहीं - अज्ज [अद्य], अस्स [अस्य], अस्मिं [अस्मिन्], अतो [अतः], अत्त [अत्र]. अ* क. निषे., तत्पु. स. एवं ब. स. में व्यञ्जनादि उत्त. प. रहने पर निषे. निपा. 'न' के स्था.-रूप में प्रयुक्त, आगे द्रष्ट; - टि. उत्त. प. स्वरादि रहने पर निषे. निपा. 'न' का स्था. 'अन्' हो जाता है - अनन्तो (ने + अन्तो), वह जिसका अन्त न हो- अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो, दी. नि. 1.20; ख. कुछ कृत्प्रत्ययान्त शब्द-रूपों में निषे. पू. स. के रूप में प्रयुक्त - अजानं ञा के वर्त. कृ. का निषे.. नहीं जानते हुए - सो अजानं वा आह, म. नि. 1.361; - टि. संस्कृत भाषा में जहाँ कृत्प्रत्ययान्त नामपद के आदि में कोई भी व्यञ्जन रकार के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त था वहाँ पालि में पूर्वसर्गीभूत 'अ' के प्रयोग के फलस्वरूप समीकरण की प्रवृत्ति के प्रभाव से व्यञ्जन का द्वित्वभाव हो गया है - अप्पटिबलो [अप्रतिबलः], अप्पटिहत [अप्रतिहतः]. अं केवल व्याकरण-ग्रन्थों में निम्न रूप में प्रयुक्त - क. निग्गहीत (अनुस्वार) को सूचित करने हेतु प्रयुक्त एक पारिभाषिक शब्द - अं इति निग्गहीतं, क. व्या. 8; (नासिका नामक करण का निग्रहण कर खुले हुए मुख द्वारा जिसका उच्चारण किया जाता है, उसे 'निग्गहीत' कहते हैं, यह स्वर के पीछे लगने वाला 'बिन्दु' है); ख. नामपदों में लगने वाली द्वि. वि., ए. व. का विभक्तिप्रत्यय - सियो अंयो ...., क. व्या. 55; - वचन नपुं.. द्वि. वि., ए. व., (केवल व्याकरणों में ही प्रयुक्त) - अंवचनस्स यं होति, क. व्या. 223. अंस' पू., क. [अंश], भाग, विभाग, हिस्सा - पटिविंसो... अंसो भागो, अभि. प. 485; एकेन अंसेन ..., अ. नि. 1(1).78%; उभयेन अंसेन, दी. नि. 2.165; ख. संख्याबोधक शब्दों के साथ समस्त होने पर उ. प. के रूप में प्रयुक्त - पच्चसेन, अ. नि. 2(1).33; चतुरंसं, छळस, अट्ठस, सोळसंस.... ध. स. 6183; उपसङ्कमितुं पुटसेनाति, दी. नि. 1.103; अ. नि. 1(2).212, पाठा. पुटोसेन; निम्न प्रयोगों में स. उ. प. के रूप में प्राप्त - अनागतंस, थिरंस, दीर्घस, पच्चुप्पन्नंस, पापियंस, मेत्तंस, सिरंस, सुक्कंस, सेय्यंस. अंस' पु., [अंस, अंस्यते समाहन्यते इति अंसः अमति, अम्यते वा भारादिना इति अंसः], कंधा - अंसो नित्थि भुजसिरो खन्धो, अभि. प. 264; अंसेन अंसं. जा. अट्ठ. 4.88; अंसे कत्वा , जा. अट्ठ. 1.12; उ. प. के रूप में अन्तरंस, एकंस आदि के अन्त. द्रष्ट; - कासाव पु.. [अंसकाषाय], कन्धे पर अवलम्बित भिक्षु का विशेष चीवरप्रकार - चतुत्थं वत्तमानं अंसकासावमेव वट्टति, विसुद्धि. 1.63; - कूट पु., तत्पु. स. [अंसकूट], कंधे का किनारा, कन्धे का जोड़ - पत्तं अंसकूटे लग्गेत्वा ..., जा. अट्ठ. 1.65; पत्तं अंसे आलग्गेत्वा, सु. नि. अट्ठ. 1.44; - बन्धक पु., [असंवन्धक], सामान्यतया भिक्षापात्र को लटकाने हेतु भिक्षु द्वारा प्रयुक्त कंधे के सहारे लटकाने वाली पट्टिका; बुद्ध द्वारा भिक्षु के लिए अनुमत चार परिक्खारों में से एक के रूप में इसी अर्थ में प्रयुक्त - अनुजानामि, भिक्खवे ... अंसबद्धकं बन्धनसुत्तकन्ति, महाव. 279, पाठा.. असंबद्धक. अंस पु., [अश्रः, अश् + रक्], किनारा, कोना, प्रायः स. उ. प. के रूप में ही प्रयुक्त; संख्याबोधक शब्दों के साथ भी स. उ. प. रूप में अटुंस, चतुरंस, छळंस, ति अंस, आदि के अन्त. द्रष्ट; - भाग पु., तत्पु. स. [अश्रभाग], किनारा अथवा किनारे का भाग - अट्टसेसु थम्भेसु एकमेकस्मि For Private and Personal Use Only
SR No.020528
Book TitlePali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Panth and Others
PublisherNav Nalanda Mahavihar
Publication Year2007
Total Pages761
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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