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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनत्थ 187 अनत्थ अनिच्चानुपस्सनातिआदीहि चतुन्नं मग्गानं पुब्बभागविपस्सना वुत्ता, पटि. म. अट्ठ. 2.140; सु. नि. 1.143, द्रष्ट. अनुपस्सना एवं अनत्त; - त्तानुपस्सी त्रि., [अनात्मानुपश्यी], पांच स्कन्धों आदि में अनात्म की अनुपश्यना करने वाला - सब्बेसु धम्मेसु अनत्तानुपस्सी विहरति, अ. नि. 2(2).165; अनत्तानुपस्सीति अवसवत्तनाकारं अनत्ताति अनुपस्सन्तो, अ. नि. अट्ठ. 3.152; - तुक्कंसक त्रि., [अनात्मुत्कर्षक]. अपनी स्वयं की प्रशंसा न करने वाला, अपने विषय में बहुत बढ़-चढ़कर न बोलने वाला - न खो पनाहं अत्तुक्कसको ... अनत्तुक्कंसको, अपरवम्भीहमस्मि, म. नि. 1.25%; अनत्तुक्कसका सब्बे, न ते वम्भेन्ति कस्सचि, अप. 1.16; - त्तुक्कंसना स्त्री., अपनी प्रशंसा न करना, अपने बारे में बढ-चढ़ कर न बोलना - अयञ्च सम्मादिट्टि ..... अनत्तुक्कंसना, अपरवम्भना, म. नि. 2.73. अनत्थ पु.. [अनर्थ], अलाभ, दुर्भाग्य, अकल्याण, विपत्ति, अवास्तविक, अनुपयोग, अहित, दुःख - यो अत्थं पुच्छितो सन्तो, अनत्थमनुसासति, सु. नि. 126; अनत्थमनुसासतीति तस्स अहितमेव आचिक्खति, सु. नि. अट्ठ. 1.43; बहुनो जनस्स अनत्थाय, अहिताय, दुक्खाय देवमनुस्सानं, चूळव.. 197; - क त्रि., ब. स. [अनर्थक], निरर्थक, बेकार, अनुपयोगी, हानिकर, विपत्ति लाने वाला - अनत्थपदसंहिता ... अनत्थकेहि पदेहि संहिता याव बहुका होति.... ध. प. अट्ठ. 1.363-64; - कारक त्रि., [अनर्थकारक], हानिकारक, अनर्थ करनेवाला, द्वेषभाव से परिपूर्ण, विद्वेषी - उपनाहीति परस्स अपराधं हदये ठपेत्वा सुचिरेनपि तस्स अनत्थकारको, जा. अट्ठ. 3.227; भिक्खवे, भण्डनकलहविग्गहविवादा नामेते अनत्थकारका, ध. प. अट्ठ. 1.35; - कारिता स्त्री., भाव. [अनर्थकारिता]. हानि करने की स्थिति या अवस्था - अनत्थताति अनत्थकारिता, दी. नि. अट्ठ. 3.118; - कुसल त्रि०, अत्थकुशल का निषे. [अनर्थकुशल]. कुशल कर्म करने में अनिपुण, हितसाधक कार्यों के सम्पादन में अकुशल, - अस्थि अनत्थकुसलो ... उपासिकानं तथारूपानि कुलानि सेवति भजति पयिरुपासति, अयं अनत्थकुसलो, खु. पा. अट्ठ. 192; -- लेन तृ. वि., ए. व. - ने वे अनत्थकुसलेन, अत्थचरिया सुखावहा, जा. अट्ठ. 1.244; अनत्थकुसलेनाति अनत्थे अनायतने कुसलेन, अत्थे आयतने कारणे असलेन वाति अत्थो, जा. अट्ठ. 1.244; - गहण नपुं.. [अनर्थग्रहण], अनर्थकारी धर्मों का ग्रहण या स्वीकरण - अविसेसतो पन ... अनत्थग्गहणतो ... आसीविससदिसता वेदितब्बा, स. नि. अट्ठ. 3.58; - त्थङ्गते त्रि., सप्त. वि., ए. व. [अनस्तङ्गते], नहीं डूबा हुआ सूर्य, चन्द्र आदि, नहीं अस्त हो चुका सूर्य, चन्द्र - विसाखापुण्णमाय अनत्थङ्गतेयेव सूरिये..., उदा. अट्ठ, 26; - अनत्थङ्गतसूरिय त्रि., ब. स., वह, जहां अथवा जिस पर सूर्य अस्त नहीं हुआ है - अनावसूरन्ति न अवसूरं अनत्थङ्गतसूरियन्ति अत्थो, जा. अट्ठ. 5.49, तुल. अत्थ ;चर त्रि., [अनर्थचर], हित न करने वाला, अहितकारी, अनर्थसम्पादक - अनत्थचरो त्वं मझेति, मि. प. 131; योपि सुहदयो ... वा यो अनत्थवा अनत्थचरो, सोपि गुरह वेदित नारहते ति, जा. अट्ठ. 5.73; चत्तारिमानि, ... यानि वत्थूनि किच्चे जाते अनत्थचरानि भवन्ति, जा. अट्ठ. 5.429; - चरिया स्त्री., [अनर्थचर्या], अनुचित कार्य, असङ्गत या असमीचीन आचरण - तथागतस्स, ... कतेन ... अनत्थचरियाय वा असमानत्तताय वा .... मि. प. 159; - जनन त्रि., हानिप्रद, अनर्थोत्पादक, निरर्थक - अनत्थजननो लोभो, ... दोसो, ... मोहो..., इतिवु. 61; अ. नि. 2(2).234; - जाननक त्रि., [अनर्थज्ञ], अनर्थ, हानि अथवा अहित को जाननेवाला, अनर्थज्ञ - एवं खो, ब्राह्मण, अत्थानत्थजाननको नाम मया सदिसो नत्थी ति, ध. प. अट्ठ. 1.373; - ता स्त्री., अनत्थ का भाव. [अनर्थता], अनर्थमय स्थिति, बुरी अवस्था - उस्सूरसेय्या परदारसेवना, वेरप्पसवो, च अनत्थता च, दी. नि. 3.139; अनत्थताति अनत्थकारिता, दी. नि. अट्ठ. 3.118; - द त्रि., [अनर्थद], अकल्याणकारी, अहितकारी, अनर्थ को देनेवाला - अनत्थतो ति अनत्थदो, महाव. अट्ठ. 407; - दस्सी त्रि., [अनर्थदर्शी], अहितकारी परामर्श देने वाला, अहित की ओर ले जानेवाला, अकल्याणकारी सुझाव देनेवाला - पापं सहायं परिवज्जयेथ, अनत्थदस्सिं विसमे निविट्ठ सु. नि. 57; परेसम्पि अनत्थं दस्सेतीति अनत्थदस्सी, चूळनि. अट्ठ. 118; - निस्सित त्रि., [अनर्थनिश्रित]. अनर्थयुक्त, निरर्थक विषय से सम्बद्ध, वितण्डावाद अथवा लोकायतिकवाद - लोकायतिकन्ति अनत्थनिस्सितं सग्गमग्गानं अदायक अनिय्यानिक वितण्डसल्लापं लोकायतिकवादं न सेवेय्य, जा. अट्ठ. 7.181; - पदसंहित त्रि., [अनर्थपदसंहित], केवल निरर्थक शब्दों से युक्त, अर्थरहित पदों वाला - सहस्समपि चे वाचा, अनत्थपदसंहिता, ध. प. 100; -टि. आकाशवर्णन, वनवर्णन आदि के प्रकाशक या अभिव्यञ्जक पद मुक्ति या निर्वाण में सहायक न होने से अनर्थपद कहलाते है, अतः ऐसे पदों से युक्त वाणी को बुद्धवचनों में 'अनत्थपदसंहिता' कहा गया है, द्रष्ट.ध. प. For Private and Personal Use Only
SR No.020528
Book TitlePali Hindi Shabdakosh Part 01 Khand 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Panth and Others
PublisherNav Nalanda Mahavihar
Publication Year2007
Total Pages761
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size29 MB
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