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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराण 18७०॥ प्राशा और शंका तजना यही सुखका उपाय है यह जीप ाश कर भरा भीगोंको भोग किया चाहे है और धर्म विषे धीर्य नहीं घरे हे क्लेश रूप अग्निकर उष्ण महा प्रारंभ विष उद्यमी का भी इथ नहीं पावे है उलटा गांठका खोवे है यह प्रांगी पापके उदयसे मनवांछित अर्थको नहीं पावहै उलटा अनर्थ । होय है सो अनर्थ अतिदुर्जय है यह में किया यह मैं करूंहूं यह मैं करूंगा ऐसे विचार करते ही मर कर कुगति जायहें ये चारों ही गति कुगति, एक पंचम गति निर्वाण सोई सुगतिहै जहांसे फिर भावना नहीं और जगतविषमृत्यु ऐसानहीं देखे है जो इसने यह किया यह न किया बाल अवस्यादिसर्यअवस्था में आय दाबे है जैसे सिंह मृगको सबस्थामें प्राय दाबे अहो यह अज्ञानी जीव अहित विष हितकी बांछा धरे है और दुख विषे सुखकी आशा करे है अनित्यको नित्य जाने हैं भय विषे शरण मानहें इन के विपरीत बुद्धिहै यह सब मिथ्यात्वका दोषहै यह मनुष्यरूप माताहाथी भार्या रूप गर्तमें पड़ा अनेक दुःखरूप बन्धनकर बंधे है विषयरूप मांसका लोभी मत्स्यकी नाई बिकल्परूपी जाल में पडे है यह प्राणी दुर्बल बदलकी न्याई कुब रूप कीच में फंसा खेद खिन्न होय है जैसे कोई वैरियों से बन्धा और अंधकूपमें पड़ा उसका निकसना अति कठिनहै तैले स्नेह रूप फांसीकर बंधा संसाररूप अंधकूप ।। में पड़ा अज्ञानी जीव उसका निकसना अतिकठिनहै कोई निकटभब्य जिनवाणीरूपरस्सेको गहे और श्रीगुरुनिकासने वाले होय तो निकसे और अभव्यजीव जैनन्द्री श्राज्ञारूप अति दुर्लभअानंदका कारण जोआत्मज्ञान उसे पायवे समर्थनहीं जिनराजका निश्चय मार्ग निकटभव्यही पाव और अभव्य सदाकर्मों कर कलंकी भए अति क्लेशरूप संसारचक्र विषभ्रमे हैं। हे श्रेणिक यह बचन श्रीभगवान सकल भूषण For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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