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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराण 18790 पन्न | होय जैसे बलभद्रनारायण अयोध्यामें रमें तैसे यह पुण्डरीकपुरमें रमे हैं । इति सौवां पर्व संपूर्णम् ॥ अयानन्तर अति उदार क्रिया विष योग्य अतिसुंदर तिनको देखकर बनजंघ इनके परणायबे विष उद्यमी भया. तब अपनी शशिचूना नाम पुत्री लक्षमा राणी उदरमें उपजी सो बत्तीस कन्या सहित मदन लवणको देनी बिचारी और अंकुश कुमारका भी विवाह साथही करना सो अंकुश योग्य कन्या इंडिवे को चिन्तावान भगा फिर मनमें विवारी पृथ्वीपुर नगरका गजा पृथु उसके गणी अमृतवती उस की पुत्री कनकमाला चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल अपने रूपकर लक्ष्मीको जीते है वह मेरी पुत्री शशि | चूनासमान है यह विचार तापै दूत भेजा सो दूत विचक्षण पृथ्वीपुर जाय पृथुसे कही जौलग दूतने कन्या याचनके शब्द न कहे तौलग इसका अति सनमान किया और जब इसने याचनेका वृतांत कहा। तब वह क्रोधायमान भया और कहता भया तू पराधीन है और पराई कहे है तुम दूत लोग जल के धोरा समान होजिस दिश चलावे ताही दिशचलो तुममें तेजनहीं बुद्धिनहीं जो ऐसे पापके बचन कहे उसका निग्रह करूं परतू पगया प्रेरा यंत्रसमानहै यंत्री बजावें त्यों बाजे इसलिय तू हनिचे योग्य नहीं हे दूत?कुल २शील३ धन४ रूप ५ समानता बलवयदेश-विद्या ये नवगुणवरके कह हैं तिनमें कुलमुख्य है सो जिन काकुलही न जानिये तिनको कन्याकैसेदीज इसलिये ऐसी निर्लजबात कहे सो राजा नीतिसे प्रतिकूल है सोकुमारी तो मैं न यूं और कु कहिये खोटी मारी कहियमृतु सोधू इसभांतिदूत को बिदाकिया सोदूत ने आयकर बज्रजंघ को व्योग कहा सो बजजंघापही चढ़कर अाधी दूर श्राय डेग किये और बडे मनुष्यों को भेज फिर पृथुमे कन्या यांची उसने न दई तबगजाबज़नंघ पृथका देश उजाटने लगा और For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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