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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म, तुझे शोक उचित नहीं हो इस संसारमें भूमता यह मूढ प्राणी उसने मोक्षमार्गको न जाना इससे । veo क्या क्या दुख न पाये इसको अनिष्टसंयोग इष्टवियोग अनेक बार भये यह अनादिकाल से भवसामर के मध्य क्लेश रूप भवणमें पड़ा है इस जीवने तियच योनि विषे जलचर नभचर के शरीर धर वर्षा शीत अातप आदि अनेक दुख पाये और मनुष्य देह विषे अपवाद विरह रुदन क्लेशदि अनेक दुख भोगे और नरकमें शीत उष्ण छेदन भेदन शूलागेहण परस्परघात महा दुगध क्षारकुण्ड विष निपात अनेक रोग अनेक दुख लहे और कभी अज्ञान तपकर अल्प ऋद्धिकाधारक देवभी भयावहांभी उत्कृष्ट ऋद्धिके धारक देवोंको देख दुखी भया, और मरणसमान महादुखीहोय विलापकर मूवा और कभीमहा। तपकर इन्द्रतुल्य उत्कृष्ट देव भया तोभी विषियानुरागकर दुखीही भया इसभांति चतुर्गति विषे भूमण करते इस जीवने भववनमें आधि व्याधि संयोग वियोग गेग शोक जन्म मृत्यु दुखंदाह दरिद्र हीनता । नानाप्रकार की बांछा विकल्पता कर शोच सन्ताप रूप होय अनन्त दुख पाये, अधोलोक मध्यलोक ऊर्थ लोकमें ऐसा स्थानक नहीं जहां इस जीवने जन्म मरण न किये, अपने कर्मरूप पवन के प्रसंग से। भवसागरमें भ्रमण करता जो यह जीव उसने मनुष्य देह में स्त्री का शरीर पाया वहां अनेक दुखः । भोगे तेरे शुभ कर्मके उदयकर गम सारिखे सुन्दर पति भये, जिनके सदा शुभका उपार्जनसो पुण्य के उदय कर पतिसहित महा सुख भोगे और अशुभके उदयसे दुस्सह दुखको प्राप्त भई. लंका द्वीप विषे रावण हर लेगया वहां पतिकी वार्ता नमुनग्यारह दिनतक भोजनबिना रही और जबतक पतिका दर्शन । ॥ न भया तबतक आभूण सुगन्ध लेपनादि रहित रही फिर शत्रुको हत पतिले आये तब पुग्यके उदय । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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