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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir गया 1801 पाहीला बोध गमाग जितका जातो रही है कान्ति जिसकी तब सीता सती कहती भइ। हे कृतान्तवक्री त काहेको महा दुखीकी न्याई रोवे है बाजाजनकन्दनाके उत्सवका दिन तु हर्ष में विषाद क्यों करेहै । इसनिर्जन बनमें क्यों रोवे है तब वह अति रुदनकर यथावत वृतांतकहताभया वह बचन विष समान अग्नि समान शस्त्रसमानहें हे मातः दुर्जनोंके बचनोंसे राम अकीर्तिके भयसे जोन तजाजाय तुम्हारा स्नेह उसे तजकर चैत्यालयोंके दर्शनकी तुम्हारे अभिलाषा उपजी थी सो तुमको चैत्यालयोंके औरनिर्वाण क्षेत्रों के दर्शन कराय भयानक बनमें तजी है हे देवी जैसे यति गगपरणतिको तजे तेसे रामने तुमको तजी । है, और लक्षमणने जो कहिवेकी हदथी सो कही कछू कमी न राखी तुम्हारे अर्थ अनेक न्याय के ! शब्द कहे, परन्तु रामने हठ न छोड़ी। हे स्वामिनि राम तुमसे नीराग भए अब तुमको धमही शरण । है सो इस संसारमें न माता, न पिता, न भाता, न कुम्ब एक धर्महीजीवका सहाई है अब तुमको यह मृगोंका भरा बनही आश्रयहै, ये वचन सुनकर सीता बज्रपातकी मागे कैसी होय गई हृदय । में दुखके भारकर मू को प्राप्त भई फिर सचेतहोय गदगद वाणीसे कहती भई शीघ्रही मुझे प्राण नाथ से मिला तब उसने कही हे मातः नगरी दूर रही और रामका दर्शन दूर तब अश्रुपातरूप जलकी धारासे मुखकमल प्रचालती हुई कहतीभई कि हे सेनापतितूमेरेबचनरामसेकहियोकिमरेत्यागकाविषाद अापन करणा परम धीर्थको अवलंब कर सदा प्रजाकी रक्षा करियो जैसे पिता पुत्रकी रक्षा करे श्राप महा न्यायवन्तहो और समस्त कलाके पारगामी हो राजाको प्रजाही श्रानन्दका कारणहै राजा वही जिसे प्रजा शरदकी पुनों के चन्द्रमा की न्याई चाहे और यह संसार असारहै महाभयंकर दखरूप है For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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