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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मा ही साक्षी है पर जीवोंका प्रयोजन नहीं नीच जनों के अपवादसे पण्डित विवेकी कोध कोन प्राप्त होवें जैसे स्वानों के भौंकने से गजेन्द्र नहीं कोप करे हैं ये लोक विचित्रगति तरंग समान है चेप्य जिनकी परदोष कथवे में आसक्त सो इन दुष्टों का स्वयमेवही निग्रह होयगा जैसे कोई अज्ञानी शिला को उपाड कर चन्द्रमा की ओर वगाय उसे मारा चाहे सो सहज ही आप निस्सन्देह नाशको प्राप्तहोय है जो दुष्ट पराये गुणोंको न सहसकें और सदा पराई निंदाकरें हैं, सो पाप कर्मी निश्चय सेती दुर्गती को प्राप्त होयहैं, जब ऐसे वचन लक्ष्मणने कहे तब श्रीरामचन्द्र कहते भए हे लक्षमण तू कहे है सो सब सत्य है तेरी बुद्धिरागद्वेष रहित अति मध्यस्थ महाशोभायमान है, परन्तु जे शुद्ध न्याय मार्गी मनुष्य हैं वे लोक विरुद्ध कार्य को तजे हैं जिसकी दशोंदिशा में अकीर्ति रूप दावानला की ज्वाला प्रज्वलित है उसको जगत् में क्या सुख और क्या उसका जीतव्य अनर्थ का करणहारा जो अर्थ उसकर क्या और विषकर संयुक्त जो औषधि उसकर क्या और जो बलवान होय जीवों की रक्षा न करे शरणागत. पालकन होय उसके बलकर क्या और जिसकर प्रात्मकल्याण न होय उस अाचरणकर क्यों चारित्र सोई जो प्रात्म हित करे और जो अध्यात्मगोचर प्रात्मा को न जाने उसके ज्ञानकर क्या और जिसकी कीर्ति रूपवधु अपवाद रूप वलवान हरे उसका जन्म प्रशस्त नहीं ऐसे जीवने से मरण भला लोकापवाद की वाततों दूर ही रहो मुझे यह महा दोष है जो पर पुरुष ने हरी सीता में फिर घर में लाया राक्षस के भवन में उद्यान वहां यह बहुत दिन रही और उसने दूती पठाय मनवांछित प्रार्थना करी और समीप आय दुष्ट दृष्टिकर देखी और मनमें आये सो वचन कहे ऐसी सीता में घर में ल्याया इस समान और लज्जा क्या । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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