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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म परागण ८८३ ।। www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन जिसका दोनोंकी मित्रताका तीन विस्तार वेगकर वशीभूतजो रामसो अपवादरूप तीव्रकष्टको मास ये सिंहकी है ध्वजा जिसके ऐसे राम तिनको दोनों बातोंकी प्रति श्राकुलतारूप चिंता असाताका कारण दुस्सह आताप उपजावती भई जैसे जेष्टके मध्यानका सूर्यदुस्सहद ह उपजावे ॥ इति छयानवां प अथानन्तर श्रीराम एकाग्र चित्तकर द्वारपालको लक्ष्मणके बुलावनेकी आज्ञा करतेभये सो द्वारपाल लक्ष्मण पैंगया थाज्ञा प्रमाण तिनको कही, लक्ष्मण द्वारपालके वचन सुनकर तत्काल तेजतुरंगपर चढ रामके निकट आया हाथ जोड नमस्कार कर सिंहासन के नीचे पृथिवीपर वैठा रामके चरणोंकी ओर है दृष्टि जिसकी राम उठकर आधे सिंहासन परलेवैठे, शत्रुघन आदि सबही राजा और विराधित आदि सव ही विद्याधर यथा योग्य बैठे पुरोहित श्रेष्ठी मन्त्री सेनापति सब ही सभा में तिष्ठे तब क्षण एक विश्राम कर रामचन्द्र ने लक्ष्मणसे लोकापवादका वृत्तांत कहा, सुनकर लक्ष्मण क्रोधकर लालनेत्रभये और योधावों आज्ञाकरी वार उन दुर्जनों के अंत करवेको जाऊंगा पृथिवीको मृषावाद रहित करूंगा जेमिथ्या वचन कहैं तिनकी जिन्हा छेद करूंगा उपमा रहितजो शील व्रतकी धारणहारी सीता उसकी जेनिन्दा करें हैं तिनका क्षय करूंगा इसभांति लक्ष्मण महाकोष रूपभये नेत्र अरुण होयगये तब श्री राम इन बचनों से शांत करतेभये कि हे सौम्ययह पृथिवीसागरपर्यंत उसकी श्रीऋषभदेव ने रक्षाकरी फिरभरतने प्रतिपालना करी और इक्ष्वाकुवंशके तिलकभये जिनकी पीठरणमें रिपुयोंने न देखी जिन की कीर्ति रूप चांदनी से यह जगत् शोभित है सोअपने वंशमें अनेक यशके उपजावन हारे भये अवमें क्षणभंगुर पाप रूप are for यशको कैसे मलिनकरूं, अल्पभी अकीर्ति जो न टारिये तोबृद्धिको प्राप्त होय और उन For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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