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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परागा H८१५॥ पद्म बोधको प्राप्तभई निर्मल प्रभातभए स्नानादि देह क्रियाकर सखियोसहित स्वामी पै गई जायकर पूछती भई हे नाथ मैं आज रात्रिमें स्वप्ने देखे तिनका फल कहो दो उत्कृष्ट अष्टापद शरदके चन्द्रमासमान उज्ज्वल और क्षोभको प्राप्त भया जो समुद्र उसके शब्द समान जिनके शब्द कैलाशके शिखरसमान सुन्दर सर्व आभरणों कर मंडित महा मनोहरहें केश जिनके और उज्ज्वलहैं दाढ जिनकी सो मेरेमुख में पैठे और पुष्पक विमानके शिखरसे प्रबल पवनके मकोरकर में पृथ्वी विषे पडी तब श्री रामचन्द्र कहतेभये हे सुन्दरिदोय अष्टापद मुखमें पैसे देखे ताके ताके फलकर तेरे दोय पुत्र होयगे और पुष्पक विमान से पृथिवी में पडना प्रशस्त नहीं सो कछु चिंता न करो दान के प्रभाव से क्रूर ग्रह शान्त होवेंगे। अथातन्तर वसन्तसमयरूपी राजा ओया तिलक जाति के वृक्ष फूले सोई उसके वषतर और नीम जाति के वृक्ष फूले वेई गजराज तिनपर आरूढ़ और प्रांब मौरआये सो मानो बनन्तका धनुष और कमल फूले सो वसन्तके वाण और केसरा फूले बेई रतिराजके तरकश और भूमर गुजार करे हैं सो मानो निर्मल श्लोकोंकर बमन्त नूप का यश गावे हैं और कदम्ब फले तिनकी सुगन्ध पवन आवे है सोई मानों वसन्त नप के निश्वास भये और मालतीके फूल फूले सो मानो वसन्त भूप शीतकालादिक अपने शत्रुवोंको हंसे है और कोयल मिष्ट वाणी बोले है सो मानों वसन्तराजाके वचन हैं इस भांति वसंत समय नृपति काँसी लीला धरे श्राया वसन्त की लीला लोकों को कामका उद्वेग उपजावनहारी है. फिर यह वसन्त मानों सिंहही है ग्राकोट जाति वृक्षादि के फूल बेई हैं नख जिसके और कुरवक. जाति के वृक्षों के फूल बेई दाढ़ जिसके और महारक्त अशोक के पुष्प वेईहैं. नेत्र जिसके और चंजलपवन वेई हैं जिव्हा जिसकी ऐसा संत । For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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