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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir परामा 120 योगीश्वरों की पूजा को शीघ्र ही चला, बड़ी विभूति कर युक्त शुभ ध्यान में तत्पर कातिक शुदी सप्तमी के दिन मुनों के चरणों में जाय पहुंचा वह उत्तम सम्यक्त का धारक विधिपूर्वक मुनिवन्दनाकर मथुरा में अतिशोभा कराव्रता भया मथुरा स्वर्ग समान सोहती भई यहवृतांतसुनशत्रुघनशीघहीमहा तुरंगचढ़ा सप्त ऋषियों के निकट आया औरशत्रुघन की माता सुप्रभा भी मुनियों की भक्ति कर पुत्रके पीछे ही आई और शत्रुघन नमस्कारकरमुनियोंकेमुख धर्म श्रवणकरता भया, मुनि कहते भए हैनृपयह संसार असार है वीतराग | कामार्गसार है जहां श्रावगके बारहबतकहे, मुनिके अठाईस मूल गुणकहे मुनोंको निर्दोष आहारलेनाकृत अकारित रोगरहित प्राशुकथाहार विधिपूर्वक लीये योगीश्वरों के तपकी वधवारी होय तब वह शत्रुघन कहता भया हे देव आपके आये इस नगर से मरी गई रोग गए दुर्भिक्ष गया सर्व दिन गए सुभिक्षया सब साता भई प्रजा के दुख गए गर्व समृद्धि भई जैसे सूर्य के उदय से कमलनी फले, कोई दिन श्राप यहां ही तिष्ठो तब मुनि कहते भए हे शत्रुघन जिन अाज्ञा सिवाय अधिक रहना उचित नहीं यह चतुर्थकाल धर्म के उद्योत का कारण है इस में मुनिन्द्र का धर्म भव्य जीव धारे हैं जिनाज्ञा पाले हैं महा मुनियोंके केवल ज्ञान प्रकट होय है मुनिसुव्रतनाथ तो मुक्त भए अब नमि, नेमि, पार्श्व, महावीर चार तीर्थंकर और होवेंगे फिर पञ्चमकाल जिसे दुखमा काल कहिये सो धर्म की न्यूनता रूप प्रवरतेगा, उस समय पाखण्डी जीवों कर जिनशासन अतिऊंना है तोभी आछादित होयगा. जैसे रजकर सूर्यका बिम्ब अाछादित होय पाखंडी निर्दई दया धर्मकोलोप कर हिन्साका मार्गप्रवर्तन करेंगे उससमय मसान समान श्राम और प्रेत समान लोक कुचेष्टा के करणहारे होवगे महाकुधर्म में प्रवीण कर चोर पाखंडी दुष्ट व For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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