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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५२. करूं तब श्रीरामने कही हे वत्स तू मधुसे युद्ध करे तो जिससमय उसके हाथ त्रिशलरत्न न होय उससमय । पुगव करियो तब शत्रुघ्नने कही जो आप अाज्ञा करोगे सोही होयगो ऐसाकह भगवानकीपूजाकर नमोकार मन्त्र जप सिद्धोंको नमस्कारकर भोजन शालामेंजाय भोजनकर माताकेनिकटबाय आज्ञामांगी तब माता अति स्नेहसे इसके मस्तकपर हाथधर कहती भई हेवस्त त् तीक्षण वाणोंकर शत्रु बोकेसमहको जीत वहयोधा की माता अपने योधापुत्रसे कहती भई हे पत्र अवतक संग्राममें शत्रुवों ने तेरी पीठ नहीं देखी है और अब भी न देखेंगे तू रण जीत आवेगा तव में स्वर्ण के कमलों कर श्री जिनेन्द्रकी पूजा कराऊंगी वे भगवान त्रैलोक्य मंगलके कर्ता आप महामंगल रूप सुर असुरोंकर नमस्कार करने योग्य रागादिक के जीतन । हारे तुझे मंगल करें वे परमेश्वर पुरुषोत्तम अरहन्त भगवन्त जिनने अत्यन्त दुर्जजय मोह रिपु जीता। वे तुझे कल्याणकेदायकहोवें जे सर्वज्ञत्रिकाल दर्शो स्वयं बुद्धितिनके प्रसाद से तेरी विजय हो। जे केवल ज्ञानकर लोकालोकको हथलीमें अवला की न्याई देखेहैं वे तुझमंगलरूपहोवे हे बरसा वेसिद्धपरमेष्ठी अष्टकम से रहित अष्टगुण आदि अनन्त गणोंकर विराजमान लोकक शिखर तिष्ठे व सिद्ध तुझं सिद्धि के कता हो। और प्राचार्य भन्यजीवों के परम अाधार तेरे विघ्न हरें जे कमल समान अलिप्त सर्य समान तिमिर हर्ता और चन्द्रमा समान आल्हाद के कर्ता भमि समान क्षमावान सुमेरु समान अचल समुद्र समान गंभीर आकाश समान अखंड इत्यादि अनेक गुणोंकर मंडित हैं और उपाध्याय जिनशासन के पारगामी तुझे कल्याण के कर्ता होवें और कर्म शत्रुवों के जीतवेको महाशवीर बारह प्रकार तपकर जे निर्वाणको साधे हैं वे साधु तुझे महावीर्य के दाता होवें इसभांति विघ्न की हरणहारी मंगल की करणहारो माता आशीश For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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