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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म पुराण www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यमनियम रूप है अंकुश जिसके वह फिर महाउग्रतपका करणहारा गजशनैः शनैः आहारकात्याग कर अंत संलेषणाघरशरीरे तज छठे स्वर्गदेवहोता भया, अनेक देवांगनाकरयुक्तहारकुण्डलादिकाभूषणोंकर मण्ड पुण्य के प्रभावसे देवगति के सुख भोगता भया, छठे स्वर्गही से आया था और छठे ही स्वर्ग गया परंपराय मोक्ष पावेगा, और भरत महामुनि महा तपके धारक पृथिवीके गुरु निर्बंथ जिनके शरीर का भी ममत्वनहीं वे महा जहां पिछला दिन रहे वहां ही बैठरहैं जिनको एक स्थान न रहना, पवन सारिखे प्रसंगी पृथिवीसमान क्षमा को घरे, जल समाननिर्मल, अग्नि समान कर्म काष्ठके भस्मकरनहारे और प्राकाश समान लेपचार आराधनामें उद्यमी तेराप्रकारचारित्र पालते विहारकरतेभए निर्ममत्व स्नेहके बंधन से रहित मृगेंद्र सारिखे निर्भय समुद्र समान गंभीर सुमेरु समान निश्चल यथाजातरूप के धारक सत्य का वस्त्र पहरे चमा रूप खड्ग को घरे वाईस परीषह के जीतनहारे महातपस्वी समान हैं शत्रु मित्र जाके और समान हैं सुख दुख जिनके और समान हैं तृपरत्न जिनके महा उत्कृष्ट मुनि शास्त्रोक्त मार्गचलते भए तप के प्रभाव कर अनेक ऋद्धि उपजी सूई समान तीक्ष्ण तृणकी सली पावों में चुभें हैं परन्तु उनकी कब सुध नहीं और शत्रु वोंके स्थानक में उपसर्ग सहिबे निमत्त विहार करते भए तपके संयम के प्रभावकर शुक्ल ध्यान उपजा शुक्लध्यान के चलकर मोह का नाश कर ज्ञानावर्ण दर्शनावर्ण अंतराय कर्महर लोकालोक का प्रकाश करण हारा केवलज्ञान प्रकट भया फिर घातिया कर्म भी दूर कर सिद्धपद को प्राप्त भये जहां से फिर संसार विषे भ्रमण नहीं, यह केकइ के पुत्र भरत का चरित्र जो भक्ति कर पढ़े सुने सो सर्व क्लेशसेरहित होय यश कीर्ति वल विभूति आरोग्यता को पावे और स्वर्ग मोक्षपाव यह परम चरित्र महा उज्वल For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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