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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्र । विषे देव, फिर भूपण नामा वैश्यका पुत्र फिर स्वर्गकिर जगति नाम राजा वहां से भोग भूमि फिर दूजे । स्वर्ग देव, वहां से चय कर महाविदेह क्षेत्र विषे चक्रवर्ती का पुत्र अभिराम भया, वहां से छठे स्वर्गदेव, देव से भरत नरेन्द्र सो चरम शरीरी हें फिर देह न धारेंगे, और सूर्योदय का जीव बहुत काल भमण करराजा कुलंकर का श्रुतिनामा पुरोहित भया फिर अनेक जन्म लेय विनोदनामा विप्र भया, फिर अनेक जन्म लेय अार्तिध्यान से मरण हारा मृगभया फिर अनेक जन्म भमण कर भषण का पि. घनदत्त नामावणिक फिर अनेक जन्म धर मृदुमतिनामा मुनि उस ने अपनी प्रशंसा सुन राग किया मायोचार शल्य दूर न करी तप के प्रभाव से छठे स्वर्ग देव भया वहांसेचयकरत्रैलोक्य मंडन हाथी अबश्रावगवतधर देवहोयगा ये भी निकटभव्य हैइसभांति जीवोंकीगति प्रागति जान और इन्द्रीयों के सुख विनाशिक जान इस विषम संसार बनको तजकरज्ञानी जीवधर्म विषे रमो, जे प्राणीमनष्यदेह पाय जिनभाषित धर्म नहींकरहैं वेअनन्त काल संसार भमण करेगें आत्माकल्याणसेदूर हैं इसलिये जिनवर के मुख से निकसा दयामईधम मोक्षप्रास करने को समर्थ इस के तुल्य और नहीं मोह तिमीस्कादृरकरणहारा जीती है सर्यकी कान्तिजिसने सोमन वचन कायकर अंगीकार करो जिससे निर्मल परम पद पावो ॥ इति पच्चासिवा प्रव शम्पूर्णम् ॥ अथानन्तर श्रीदेशभूषण केवलीके बचन महापवित्र मोह अन्धकारके हरणहारे संसार सागर केतारण हारे नानाप्रकारके दुखके नाशक उनमें भरत और हाथीके अनेक भवका वर्णन सुनकर राम लक्षमण आदि सकल भव्यजन आश्चर्यको प्राप्त भये, सकल सभा चेष्टारहित चित्राम कैसी होय गई और || भरत नरेन्द्र देवेन्द्र समानहे प्रभा जिसकी अविनाशी पदके अर्थ मुनि होयवेकी है इच्छा जिस के For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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