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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पद्म विदेह मध्य अचल नामा चक्रवर्ती के रत्न नामराणी के अभिराम नामापुत्र भया सो महा गुणों का niesen समूह अति सुन्दर जिसे देखे सर्वलोक को आन्दहोय सो बाल अवस्था ही से अति विरक्त जिनदीक्षा धारा चाहे और पिता चाहे यह घरमें रहे तीनहजार राणी इसे परणाई सोवे नानाप्रकारके चरित्र करें परन्तु यह विषय सुखको विष समान गिने केवल मुनि होयवेकी इच्छा अतिशांत चित्त परन्तुपिता घरसें निकसने न देय यह महा भाग्य महाशीलवान महागुणवान महात्यागी स्त्रियोंका अनुराग नहीं इसको वे स्त्रीभांति भांति के बचन कर अनुराग उपजावें अति यत्न कर सेवा करें परन्तु इसको संसार की मायागर्त रूपभासे जैसे गर्त में पडा जोगज उसे पकडनहारे मनुष्य नानाभांति ललचावे तथापि गजको गर्त न रुचे ऐसे इसेजगत की माया न रुचे यहपरमशांतिचित्त पिताके निरोधसे अति उदासभया घरमें रहे तिनस्त्रियों के मध्य प्राप्त हुवा तीब्र असि धारा ब्रतपाले स्त्रीयोंके मध्यरहना और शीलपालना तिनसें संसर्ग न करना उसका नाम असिधाग व्रत कहिए मोतियों के हार बाजूबंद मुकटादि अनेक आभूषण पहिरे तथापि आभूषमासे अनुराग नहीं यहमहा भाग्यासिंहासन पर बैठा निरंतर स्त्रियों को जिनधर्मकी प्रशंसा का उपदेश देय त्रैलोक्य विषे जिनधर्म समान और धर्म नहीं ये जीव अनादिकाल से संसार बन विषे भ्रमण करे हैं सो कोई पुण्य कर्भके योगसे जीवोंको मनुष्य देहकी प्राप्ति होयहै यहबात जानता संता कौनमनुष्य संसार कृपमें पडे अथवा कोन विवेकी विषको पीवे अथवागिरिके शिखर पर कौन बुद्धिवान निंद्रा करे अथवामणिकी बांछा कर कौन पंडित नागका मस्तक हाथ से स्पर्श बिनाशीक ये काम भोग तिन विषे ज्ञानी को कैसे अनुराग उपजे एक जिनधर्मका प्रमुगग ही महा प्रशंसा योग्यमोक्षके For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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