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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra च पुराल ॥१॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir या सो मुनि महाज्ञानी राजाकोदेख जाना इसके मित्थ्यादर्शन दुर्निवार हैं और उम्ही समय नन्दीनामा श्रेष्ठी महाजिनभक्त मुनि के दर्शनको माया उसका राजा ने आदर किया उसको देख प्रथम और पश्चिम दोनों भाईयों में से छोटे भाई पश्चिम ने निदान कीया जो मैं इस धर्म के प्रसाद कर नन्दी सेठके पुत्र होऊ बड़े भाई ने और गुरु ने बहुत सम्बोधा जो जिनशासन में निदान महानिन्द्य है सो यह न समझा कुबुद्धि निदानकर दुखित भया मरण कर नन्दी के इन्दुमुखी नामा स्त्री उसके गर्भमें श्राया सो गर्भ में यावते ही. बड़े बड़े राजावों के स्थान कमें कोटका निपात दरवाजों का निपात इत्यादि नानाप्रकार के चिन्ह होते भए, तब बड़े बड़े राजा इसको नानाप्रकार के निमित कर महानर जान जन्म ही से अति आदर संयुक्त दूत भेज भेज द्रव्य पठाय सेवते भए, यह बड़ा भया इसका नाम रतिवर्धन सो सबराजा इसको सेवें कोशांबीनगरी का राजा इंदु भी सेवा करे नित्य प्राय प्रणाम करे इसभांति यह रतिवर्धन महाविभूति कर संयुक्त भया और बड़ा भाई प्रथम मर कर स्वर्ग लोक गया, सो छोटे भाई के जीव को संबोध के अर्थ क्षुल्लक का स्वरूप घर आया सो यह मदोन्मत्त राजाम दकर अन्धा होय रहा सो चुल्लकको दुष्ट लोकोंकर द्वारमें पैठने न दिया तब देवने क्षुल्लकका रूप दूरकर रतिवर्धनका रूप किया तत्काल उसका नगर उजाड़ उद्यान कर दीया और कहता भया अब तेरी कहां वार्ता तब वह पांयनपर पड, स्तुति करता भया. तब उसको सकल वृत्तांत कहा जो आपां दोनों भाई थे में बड़ा तू छोटा सो क्षुल्लक के व्रतधारे सो र्तेने नन्दी सेठ को देख निदान कीया सो मरकर नन्दी के घर उपजा राजविभूति पाई और मैं स्वर्ग में देव भया यह सब वार्ता सुन रतिवर्धन को सम्यक्त उपजा मुनि भया और नन्दीको आदि दे अनेक राजा रतिवर्धन के संग For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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