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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पद्म का 1 १८४ । www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुत्र को कहे आपसात दिन मरकर विष्टा में कीड़ा भया सो प्रीत्यंकर कीट के हनिवेको गया सो कट मरने के भयकर विष्टामें पैठिगया तब प्रीत्यंकर मुनिपै जाय पूछता भया हे प्रभो मेरे पिता ने कही थी जो मैं मलमें कीट होब'गा सो तू हनियो यत्र वह कीट मरिवे से डरे है और भागे है तब मुनि ने कही तू विषाद मतकरे यह जीव जिसगति में जाय है वहां ही रम रहे है इसलियतू आत्मकल्याण कर जिसक पापों से छूटे और यह जीव सबही अपने अपने कर्मका फल भोगये हैं कोई काहूका नहीं यह संसार का स्वरूप महादुख का कारण जान प्रीत्यंकर मनि भया सर्व वांळा तजी, इसलिये हे विभीषण यह नानाप्रकार जगत् की अवस्था तुम कहानं जानो हो तुम्हारा भाई महा शूरवीर दैव योगसे नारायणने हता संग्राम के सन्मुख महा प्रधान पुरुष उसका सोचक्या तुम अपना चित कल्याण में लगावो यह शोक दुःखका कारण उसे तो यह वचन और प्रीत्यंकरकी कथा भामण्डल के मुख सेविभीषण ने सुनी, कैसी है प्रीयंकर निकी कथा प्रतिबोध देवे में प्रवीण और नाना स्वभावकर संयुक्त और उत्तम पुरुषोंकर कहिये योग्य सो सर्व विद्याधरों ने प्रशंसा करी सुनकर विभीषण रूप सूर्य शोकरूप मेघ पटल से रहित भया लोकोत्तर चार का जानने वाला ॥ इति सतत्तरखांपर्व संपूर्णम् ॥ अथानन्तर श्री रामचन्द्र भामण्डल सुग्रीवादि सबसे कहते भए, जो पण्डितों के बैर वैरी के मरण पर्यन्ती है लंकेश्वर परलोक को प्राप्त भए सो यह महानर थे इनका उत्तम शरीर अग्नि संस्कार करिए तब सबों ने प्रमाण करी और विभीषण सहित रामलक्षमण जहां मन्दोदरी आदि टारह हजार राणीयों सहित जैसे कुरुचिपुकारे तैसे विलाप करती थी सो वाहनसे उतर समस्त विद्याधरों सहित दोनों For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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