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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुराया ॥७६५॥ - - - __ अथानन्तर चतुरंग सेना संयुक्त धनुष छत्रादिक कर पूर्ण मारीच महा तेजको धरे युद्ध का अभिलाषी प्राय प्राप्त भया फिर विमलचन्द्र आया महाधनुष धारी और सुनन्द प्रानन्द नन्द इत्यादि हजारों राजा पाए सो विद्या कर निरमापित दिव्यस्थतिन पर चढे अग्नि कैसी प्रभा को धरे मानों अग्निकुमारदेव ही हैं कैयक तीक्ष्ण शस्त्रों कर सम्पूर्ण हिमवान पर्वत समान जे हाथी उनकर सब दिशावोंको पालादते हुए पाए जैसे विजुरीसे संयुक्त मेघमाला अावे और कैयक श्रेष्ठ तुरंगों पर चढ़े पांचों हथियारों कर संयुक्त शीघ्रही ज्योतिष लोकको उलंघ आवतेभए नाना प्रकारके बडे बडे बादित्र और तुरंगोंका हींसना गजोंका गर्जना पयादों के शब्द योधायोंके सिंहनाद बन्दीजनोंक जय जय शब्द और गुणी जनों के गीत वीर रसके भरे इत्यादि औरभी अनेक शब्द भले भए धरती प्रकाश शब्दायमानभए जैसे प्रलय कालके मेघपटल होवे तैसे निकसे मनुष्य हाथी घोडे स्थ पियादे परस्पर अत्यंत विभूति कर देदीप्यमान बडी भुजावों से बखतर पहिरे उतंग हैं उरस्थल जिनके विजयके अभिलाषी और पयादे खडगसम्हालें हैं महा चंचल आगे २ चले जाय हैं स्वामी के हर्ष उपजावनहारे तिनके समूहकर अाकाश पृथ्वी और सर्व दिशा व्याप्त भई ऐसे उपाय करते भी इस जीवके पूर्व कर्मका जैसा उदय है तैसाही होयह यह प्राणी अनेक चेष्टा करे है परन्तु अन्यथा न होय जैसा भवितव्य है तैसा ही होय है सूर्य भी और प्रकार करने समर्थ नहीं ॥ इति तिहत्तरवां पर्व पूर्ण भया । अथानन्तर लंकेश्वर मन्दोदरीसे कहताभया हे प्रिये नजानिये फिर तुम्हारा दर्शन होय वा न होय || तब मन्दोदरी कहती भई हे नाथ सदा वृद्धिको प्राप्त होवो शत्रुवोंको जीत शीघ्रही आय हमको देखोगे। For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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