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पुराण 59५२॥
कुलवन्तों को उचित नहीं. फिर कहतीभई तुमने सीता का क्या महात्म्य देखाजो उसे बाम्बारखांछो हो वह ऐसी गुणवन्ती नहीं ज्ञाता नहीं,रूपवंतियों का तिलकनहीं,कलाविषेप्रवीणनहीं,मनमोहनीनहीं पतिके छांदेचलने वारीनहीं,उस सहित रतिविषे बुद्धि करो होसो हे कंत यह क्याबार्ता अपनी लघुता होयहै सो तुम नहीं जानोहो में अपनेमुख अपनी प्रशंसा क्या करू अपने मुख अपनेगुण कहे गुणोंकी गौणता होयहै. और पराए मुख सुने प्रशंसा होय है, इसलिये में क्या कहूं तुम सब नीके जानो हो विचारी सीता कहां लक्ष्मी भी मेरे तुल्य नहीं इसलिये सीता की अभिलाषा तजो मेरा निरादर कर तुम भूमिगोचरणी को इच्छो हो सो मन्दमति हो जैसे बालबुद्धि वैडूर्य मणि को तज और कांच को इच्छे उसका कछ दिव्यरूप नहीं तुम्हारे मन में क्या रुंबीयह ग्राम्यजनको नारो समान अल्प मति उसकी क्या अभिलाषा और मुझे आज्ञा देवो सोई रूपधरूं तुम्हारे चितकी हरणहारी में लक्ष्मीका रूपधरूं और आज्ञा करोतो शची इन्द्राणीका रूपधरूं कहो ता रतिका रूपधरू हेदेव तुम इच्छा करो सोई रूपकरूं यहवार्ता मंदोदराकी सुन रावणने नीचामुख किया और लज्जावान भया फिर मंदोदरी कहतो भई तुम परस्त्री आसक्त होय अपनी आत्मा लघुकिया विषय रूप आमिष को आसक्ती है जिसके सो पापका भाजन है धिक्कारहै ऐसी तुद्र चेष्टा को यहवचन सुन रापण मंदोदरी से कहता मया हे चन्द्रबदनी कमल लोचनी तुम यह कहीजोकहो जैसा रूप फिर धरूं सो औरोंके रूप से तुम्हारा रूप क्या घटतीहै तुम्हारा स्वतः स्भावही रूप मुझे अति बल्लभहें अहो उत्तम मेरे और स्त्रियों कर कहां तब हर्षित चित्त होय कहती भई हे देव सूर्य को दीपका उद्योत कहां दिखाइये, मै जोहितके वचन आप को कहे सो औरोको पूंछ देखो में स्त्री हूं मेरेमें ऐती बुद्धि नहीं शास्त्र में यह कही है जो
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