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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पुराण १७५६. जो कुछ होनहारहै उसे प्रमाण बुद्धि उपजे है बुद्धि कर्मानुसारणी है सो इंद्रादिककर तथा देवोंके समूह कर और भांति न होय सम्पूर्ण न्यायशास्त्र और धर्म शास्त्र तुम्हारा पति सब जाने है परन्तु मोह कर उन्मत्तभयाहै हम बहुत प्रकार कहा सो काहू प्रकार माने नहीं जो हठ पकड़ाहै सो छाड़े नहीं जैसे वर्षाकालके समागम विष महा प्रवाहकर संयुक्त जो नदी उसका तिरना कठिनहे तैसे कर्मोंका प्रेरा जो जीव उसका सम्बोधना कठिन है यद्यपि स्वामीका स्वभाव उसका दुर्निवारहै तथापि तुम्हारा कहा करे तो करे सो तुम हितकी बात कहो इसमें दोष नहों यह मंत्रियोंने कही तब पटराणी साक्षात लक्ष्मीसमान निर्मल है चित्त जिसका सो कम्पायमान पतिके समीप जायवेको उद्यमी भई महा निर्मल जल समान बस्त्र पहिरे जैसे रति कामके समीप जाय तैसे चली सिरपर छत्र फिरे है अनेक सहेली चमर द्वारे हैं जैसे अनेक देवियोंकर युक्त इन्द्राणी इन्द्रपै जाय तैसे यह सुन्दरबदनकी धरणहारी पतिपै गई निश्वास नाखती पांय डिगते शिथिलहोय गई कटि मेखला जिसकी भरतारके कार्य विषे सावधान अनुराग की भरी उसे स्नेहकी दृष्टिकर देखती भई आपका चित्त शस्त्रोंमें और बक्तरमें तिनको आदरसे स्पर्शे है सो मन्दोदरीसे कहतेभए हे मनोहरे हंसनी समान चालकी चलनहारी हे देवी ऐसा क्या प्रयोजन है जो तुम शीघ्रतासे आवोहो हे प्रिय मेरा मन काहेकोहरो हो जैसे स्वप्न विषे निधान तब वह पतिव्रता पूर्ण चन्द्रमासमान है बदन जिसका फूले कमलसे नेत्र स्वतः स्वभाव उत्तम चेष्टाकी घरणहारी मनोहर । जे कटाक्ष वेई भए बाण सो पतिकी ओर चलावनहारी,महा विचक्षण मदनका निवासहै अंग जिस का महामधुर शब्दकी बोलनहारी स्वर्णके कुम्भसमान हैं स्तन जिस के तिनके भार कर नयगया है उदर For Private and Personal Use Only
SR No.020522
Book TitlePadmapuran Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
PublisherDigambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publication Year
Total Pages1087
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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